
प्रेस विज्ञप्ति
लखनऊ, उत्तरप्रदेश
मणिपुर में लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा: एक राजनैतिक, संवैधानिक और सामाजिक विश्लेषण
“जब कोई राष्ट्र अपने सीमांत क्षेत्रों को भूल जाता है, तो उसका लोकतंत्र केवल केंद्र तक सीमित रह जाता है। मणिपुर इसका ज्वलंत उदाहरण बन चुका है।”
मणिपुर, जो भारत के पूर्वोत्तर में स्थित एक सुंदर लेकिन संवेदनशील राज्य है, आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी अस्थिरता और हिंसा की गिरफ्त में है। बीते दो वर्षों में हुई जातीय हिंसा, प्रशासनिक विफलता और राजनीतिक उपेक्षा ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या भारत का लोकतंत्र वास्तव में संपूर्ण और समावेशी है, या फिर यह केवल कुछ क्षेत्रों और वर्गों तक सीमित एक राजनीतिक संरचना मात्र बन चुका है?
I. राजनैतिक दृष्टिकोण: असफल नेतृत्व और अनुत्तरदायी सत्ता
मणिपुर की वर्तमान स्थिति एक स्पष्ट राजनीतिक विफलता का परिणाम है। मई 2023 में भड़की हिंसा के बाद से अब तक केंद्र सरकार की निष्क्रियता, प्रधानमंत्री की चुप्पी और स्थानीय सरकार की दिशाहीनता ने हालात को केवल और अधिक भयावह बनाया है।
- नेतृत्व की अनुपस्थिति: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो वर्षों में एक बार भी मणिपुर का दौरा नहीं किया, जबकि 300 से अधिक बार देश-विदेश की यात्राएं कीं। यह राज्य की उपेक्षा का प्रतीक है।
मुख्यमंत्री की स्थिति: मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह का नाम मात्र का अस्तित्व और केंद्र की ओर से स्पष्ट निर्देशों का अभाव राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ाता रहा है।
भाजपा की रणनीति: राज्य में सत्ता की पुनर्स्थापना को लेकर भाजपा के कदम अस्पष्ट रहे हैं। सरकार बनाने के लिए इच्छाशक्ति का अभाव यह दर्शाता है कि शायद पार्टी मणिपुर की जिम्मेदारी उठाने से कतराती है।
यह सब एक राजनीतिक विसंगति को दर्शाता है जहाँ लोकतांत्रिक जवाबदेही केवल चुनावी वक्तव्यों तक सीमित रह गई है।
II. संवैधानिक दृष्टिकोण: क्या संविधान ने अपनी शक्ति खो दी है?
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में “न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व” का वादा किया गया है। परंतु मणिपुर के संदर्भ में यह वादा खोखला साबित हो रहा है।
- अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) – मणिपुर में 270 से अधिक लोगों की हत्या, हजारों की विस्थापित स्थिति, महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार, इस मौलिक अधिकार का सीधा हनन है।
संविधान के अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) – बार-बार इंटरनेट बंदी, मीडिया रिपोर्टिंग पर अनौपचारिक सेंसरशिप, और स्थानीय कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी यह बताती है कि संविधानिक अधिकार महज़ दिखावा बन चुके हैं।
संविधान के अनुच्छेद 355 के तहत केंद्र की जिम्मेदारी है कि वह राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखे। लेकिन केंद्र सरकार की निष्क्रियता इस संवैधानिक दायित्व की घोर अवहेलना है।
ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है — क्या मणिपुर में संविधान लागू है या वह केवल शेष भारत के लिए सुरक्षित रह गया है?
III. सामाजिक दृष्टिकोण: समाज में बढ़ती खाई और सामूहिक असंवेदनशीलता
मणिपुर की हिंसा का सामाजिक पहलू कहीं अधिक जटिल और चिंताजनक है। मैतेई और कुकी समुदायों के बीच गहराती खाई, बार-बार की हिंसा, और जातीय तनाव ने इस राज्य को सांप्रदायिक युद्ध क्षेत्र बना दिया है।
- सामाजिक ध्रुवीकरण: राजनीतिक दलों ने बार-बार इस तनाव को सत्ता साधन के रूप में इस्तेमाल किया, जिससे दो समुदायों में स्थायी अविश्वास की भावना पनप गई।
मीडिया की निष्क्रियता: राष्ट्रीय मीडिया द्वारा मणिपुर को बार-बार नजरअंदाज करना एक सामूहिक असंवेदनशीलता को दर्शाता है। जिस बलात्कार और नग्न परेड की घटनाएं अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाईं, वे भारतीय मुख्यधारा मीडिया में कुछ दिनों के बाद ही गायब हो गईं।
जनता की थकावट: दो वर्षों की हिंसा ने स्थानीय जनता को भय, असुरक्षा और हताशा से भर दिया है। राहत शिविरों में रहने को मजबूर हजारों लोगों की ज़िंदगी आज किसी शरणार्थी की तरह बीत रही है।
यह सब दर्शाता है कि मणिपुर की त्रासदी अब केवल प्रशासनिक संकट नहीं, बल्कि एक सामाजिक टूट बन चुकी है।
क्या मणिपुर भारत का हिस्सा है या राजनीतिक नक्शे की परछाई?
भारत सरकार बार-बार “विकसित भारत”, “विकासशील भारत”, “आत्मनिर्भर भारत” जैसे बड़े-बड़े नारे देती है। लेकिन इन नारों के नीचे जब एक राज्य दो साल से जल रहा हो, वहाँ के नागरिक न्याय की भीख मांग रहे हों, और प्रधानमंत्री तक वहाँ न पहुँचें — तो यह लोकतंत्र की नहीं, बल्कि सत्तावाद की निशानी बन जाती है।
मणिपुर अब केवल एक राज्य नहीं, बल्कि एक प्रश्न है — भारत के लोकतंत्र की वास्तविकता पर। जब तक इस प्रश्न का उत्तर ईमानदारी और संवेदनशीलता से नहीं दिया जाएगा, तब तक यह लोकतंत्र केवल कागज़ों की शोभा बनकर रह जाएगा।
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