
दहेज प्रथा: एक सामाजिक बुराई जो अभी भी कायम है
“परंपराओं ने गरीब परिवारों का बहुत कुछ उजाड़ा।” यह वाक्य हमारे समाज की कड़वी सच्चाई को उजागर करता है। दहेज प्रथा, जो कभी परंपरा और प्रेम का प्रतीक मानी जाती थी, आज एक सामाजिक अभिशाप बन गई है।
पिता के छाले और बेटी के सपने
“तू ताना कभी न देता मुझे दहेज़ का, अगर देख लेता छाले मेरे पिता के हाथ पे।”
यह शब्द हर उस बेटी और पिता की कहानी को बयान करते हैं जो दहेज के कारण पीड़ा सहते हैं। पिता अपने खून-पसीने से बेटी के सपनों को पूरा करने की कोशिश करते हैं, लेकिन समाज की लालची सोच उनके प्रयासों पर पानी फेर देती है।
दहेज प्रथा: एक खतरनाक मानसिकता
दहेज प्रथा केवल एक आर्थिक बोझ नहीं है, यह एक मानसिकता है जिसने समाज को खोखला बना दिया है।
- भावनात्मक और आर्थिक शोषण: दहेज के नाम पर बेटियों और उनके परिवारों का भावनात्मक और आर्थिक शोषण किया जाता है।
- महिलाओं के खिलाफ अपराध: दहेज के कारण हर साल कई महिलाएं शोषण, घरेलू हिंसा, और आत्महत्या का शिकार बनती हैं।
- परिवारों का बिखराव: दहेज की मांग कई परिवारों को तोड़ देती है और रिश्तों को कमजोर कर देती है।
प्रेरणा बनते परिवार
हालांकि, समाज में ऐसे परिवार भी हैं जो दहेज को ठुकरा कर विवाह को एक सच्चे रिश्ते की तरह निभाते हैं। ये परिवार समाज के लिए प्रेरणा हैं और दिखाते हैं कि सच्चा प्रेम और सम्मान किसी भी परंपरा या पैसे से अधिक मूल्यवान है।
समाधान की ओर कदम
- सोच में बदलाव: दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए सोच बदलना सबसे जरूरी है।
- कानून का पालन: दहेज निषेध कानून को सख्ती से लागू करना चाहिए।
- शिक्षा और जागरूकता: बेटियों को आत्मनिर्भर बनाने और समाज को शिक्षित करने की दिशा में कदम उठाना होगा।
- समाज का सहयोग: जो परिवार दहेज नहीं लेते, उन्हें समाज में सम्मानित करना चाहिए ताकि दूसरों को प्रेरणा मिले।
निष्कर्ष
दहेज प्रथा केवल एक परंपरा नहीं है, यह एक अपराध है जो लाखों परिवारों की खुशियों को छीन लेता है। इसे खत्म करना सिर्फ सरकार का नहीं, बल्कि हर व्यक्ति का कर्तव्य है।
“अगर समाज में बदलाव लाना है, तो सोच को बदलना होगा।”
एलिक सिंह
संपादक, वंदे भारत लाइव टीवी न्यूज़
📞 8217554083
