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75 वर्ष का पड़ाव,सत्ता, आयु और विरासत का विमर्श

विशेष रिपोर्ट, अजीत मिश्रा (खोजी)

।। 75 वर्ष का पड़ाव,सत्ता, आयु और विरासत का विमर्श  ।।

भारत की राजनीति इस समय एक प्रतीकात्मक मोड़ पर है। 17 सितंबर 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 75 वर्ष के हो जाएंगे। यह केवल एक जन्मदिन नहीं है; यह उस सत्ता-दर्शन का परीक्षण है जिसे उन्होंने स्वयं गढ़ा था और जिसमें उन्होंने 75 वर्ष की सीमा को दूसरों के लिए एक कसौटी बनाया था।

# सत्ता और समय का द्वंद्व

दार्शनिक दृष्टि से सत्ता कभी स्थायी नहीं होती। अरस्तू और कौटिल्य दोनों ने लिखा कि सत्ता का बल केवल संस्थागत नहीं होता, वह नैतिक अधिकार पर भी टिका होता है। जब कोई शासक स्वयं अपने द्वारा निर्मित नियम से टकराता है, तब सत्ता और समय के बीच द्वंद्व पैदा होता है। मोदी जी का 75वाँ वर्ष यही द्वंद्व है।

# आयु और उत्तरदायित्व

भारतीय परंपरा में आयु केवल जैविक गिनती नहीं रही। उपनिषदों ने 75 से ऊपर के जीवन को वानप्रस्थ का काल माना है, जब व्यक्ति धीरे-धीरे सांसारिक जिम्मेदारियों से निवृत्त होकर विरासत निर्माण पर ध्यान देता है। यह चरण केवल शारीरिक थकान नहीं, बल्कि आत्मावलोकन और उत्तरदायित्व का काल है। प्रश्न यह है कि क्या भारत की राजनीति में भी यह परंपरा जीवित हो सकती है?

# विरासत का प्रश्न

इतिहास गवाह है कि नेहरू, इंदिरा, अटल—सभी नेताओं की विरासत केवल उनके कामों से नहीं, बल्कि कैसे विदा हुए इससे भी तय हुई। सुकरात ने कहा था कि “मृत्यु से अधिक महत्वपूर्ण है, जीवन के अंतिम क्षणों का स्वरूप।” राजनीति में भी यही लागू होता है। यदि मोदी जी स्वेच्छा से विराम लेते हैं, तो उनकी छवि त्यागी नेता की बन सकती है; यदि दबाव में हटते हैं तो वही विरासत विवादित होगी।

# सत्ता का शिखर और संन्यास

सुनील गावस्कर का कथन—”संन्यास तब लीजिए जब आप शिखर पर हों”—राजनीति में और गहरा हो जाता है। क्योंकि राजनीति का शिखर केवल पद से नहीं, बल्कि जनता के मानस में बसे प्रभाव से मापा जाता है। नरेंद्र मोदी निस्संदेह इस शिखर पर पहुँचे। अब उनके सामने प्रश्न यह है कि वे इसे कैसे छोड़ते हैं।

# समय का आह्वान

9 सितंबर और 17 सितंबर केवल तिथियाँ नहीं हैं; वे भारत की राजनीति के लिए सत्ता और समय के मिलन बिंदु हैं।

* यदि मोदी जी सक्रिय राजनीति में बने रहते हैं, तो यह उनके आत्मविश्वास और निरंतरता का संदेश होगा।

* यदि वे धीरे-धीरे उत्तराधिकार की प्रक्रिया शुरू करते हैं, तो यह उनकी राजनीतिक परिपक्वता का संकेत होगा।

* और यदि वे अचानक संन्यास का निर्णय लेते हैं, तो यह भारतीय राजनीति के इतिहास में एक अनूठा मोड़ होगा।

अंततः सत्ता की सबसे बड़ी परीक्षा यह नहीं है कि आप उसे कितने लंबे समय तक थामे रहते हैं, बल्कि यह है कि आप उसे किस गरिमा के साथ छोड़ते हैं।

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