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जिंदगी कभी मोबाइल नेटवर्क जैसी हो जाती है—जहाँ ज़रूरत हो वहीं No Signal! और जहाँ ज़रा भी काम न हो, वहाँ पूरा टावर खड़ा।

सागर। वंदे भारत लाईव टीवी न्यूज रिपोर्टर सुशील द्विवेदी।व्यंग्य -जिंदगी

जिंदगी भी बड़ी मजेदार चीज़ है। बचपन में लगता था जल्दी बड़े होंगे तो आज़ादी मिलेगी। बड़े हुए तो पता चला—ये आज़ादी तो सिर्फ़ पापा की बेल्ट और मास्टरजी की छड़ी से थी, आगे तो टैक्स विभाग और बॉस की घूरती नज़रों से आज़ादी की कोई स्कीम ही नहीं है।

जिंदगी कभी मोबाइल नेटवर्क जैसी हो जाती है—जहाँ ज़रूरत हो वहीं No Signal! और जहाँ ज़रा भी काम न हो, वहाँ पूरा टावर खड़ा।

हम सोचते हैं शादी करेंगे तो सहारा मिलेगा… शादी के बाद पता चला—सहारा नहीं, EMI और गृहस्थी की किस्तें मिलेंगी। रोमांस का समय वहीं गुम हो जाता है जहाँ बिजली का बिल और बच्चों की स्कूल फीस रखी होती है।

सपनों का हाल भी गज़ब है। कोई कहता है विदेश घूमना है, कोई कहता है कार लेनी है। बैंक अकाउंट हँसकर कहता है—“भाई पहले स्कूटर का पेट्रोल तो भरवा लो।”

असल में जिंदगी वही है जो इंस्टाग्राम पर फिल्टर लगाकर स्मार्ट लगती है और हकीकत में बिना फिल्टर वाली फोटो जैसी—सीधी, सादी और थोड़ी डरावनी।

यानी जिंदगी वो तमाशा है जिसमें हम सब किरदार हैं और सबसे बड़ा जोकर खुद जिंदगी ही है।
डॉ आस्था मिश्रा “भारती”

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