
“देहरादून प्रेस क्लब में गरमा गई बहस: गीता राम गौड़ की प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों के सवालों ने खोली लोकतंत्र में मीडिया की असली भूमिका की पोल”
देहरादून के प्रेस क्लब में भारतीय जनता पार्टी की नेता गीता राम गौड़ की प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जो कुछ हुआ, उसने एक बार फिर इस बात पर जोर डाल दिया कि लोकतंत्र में पत्रकारिता की असली पहचान सत्ता से सवाल पूछने में है, न कि उसकी तारीफ करने या सिर्फ उसके प्रचार-प्रसार का साधन बनने में। प्रेस कॉन्फ्रेंस का मकसद था कि गीता राम गौड़ अपने संगठनात्मक और राजनीतिक मुद्दों पर मीडिया को जानकारी दें, लेकिन जैसे ही पत्रकारों ने उनसे सीधे और असहज करने वाले सवाल पूछने शुरू किए, माहौल बदल गया। यह बहस एक सामान्य संवाद की जगह एक तीखी बहस में बदल गई, जिसने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नेता मीडिया के सवालों को क्यों टालना चाहते हैं और पत्रकारिता के सामने ऐसी चुनौतियां क्यों पैदा हो रही हैं। असल में, लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ माना जाता है, क्योंकि उसका मुख्य काम होता है सत्ता से सवाल करना, न कि उसके सामने झुक जाना। जब पत्रकारों ने गीता राम गौड़ से महंगाई, बेरोजगारी और स्थानीय मुद्दों पर जवाब मांगने शुरू किए, तो प्रेस कॉन्फ्रेंस का माहौल गर्म हो गया। यह घटना हमें याद दिलाती है कि वही पत्रकारिता लोकतंत्र को मजबूत करती है, जिसमें सवाल पूछने की हिम्मत होती है। पिछले कुछ वर्षों में देखा जा रहा है कि नेताओं के प्रेस कार्यक्रमों में अक्सर ‘फ्रेंडली’ सवाल पूछे जाते हैं, जो सिर्फ दिखावे और प्रचार का हिस्सा होते हैं। यह चलन पत्रकारिता की आत्मा को नुकसान पहुंचा रहा है। जिस दिन मीडिया नेताओं से “आम कैसे खाते हैं?” या “आपकी फिटनेस का राज़ क्या है?” जैसे हल्के-फुल्के सवालों की बजाय “रसोई गैस महंगी क्यों हो गई?”, “प्याज और टमाटर के दाम इतने क्यों बढ़ गए?” या “बेरोजगार नौजवानों को नौकरी कब मिलेगी?” जैसे असली सवाल पूछना शुरू कर देगा, उस दिन नेता भी जनता को जवाब देने के लिए मजबूर होंगे। लोकतंत्र की सेहत के लिए जरूरी है कि सत्ता में बैठे लोग सवालों के प्रति जवाबदेह रहें और मीडिया बिना डर के उनकी जवाबदेही तय करे। दुर्भाग्य से आज का मीडिया बड़े पैमाने पर पीआर और प्रचार तंत्र में तब्दील होता जा रहा है, जहां पत्रकारों को असहज करने वाले सवाल पूछने की बजाय नेताओं की छवि चमकाने का काम दिया जाता है। इससे जनता की आवाज़ कमजोर होती है और लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ता है। देहरादून की यह घटना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने एक बार फिर साबित किया कि जब भी पत्रकार सही मुद्दों पर सवाल उठाते हैं, तो सत्ता पक्ष अक्सर असहज हो जाता है और बहस या टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है। पत्रकारों का काम सरकार या नेताओं की आलोचना करना नहीं, बल्कि तथ्यों पर आधारित सवाल पूछना होता है। लेकिन जब सवालों को दबाने या टालने की कोशिश होती है, तो यह लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए खतरे की घंटी होती है। प्रेस क्लब की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद पत्रकारों ने जो साहस दिखाया, वह इस बात की मिसाल है कि पत्रकारिता का मूल काम सत्ता को आईना दिखाना ही है। यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि असली पत्रकारिता वही है जो जनता के सवालों को नेताओं तक पहुंचाती है। जब महंगाई, बेरोजगारी, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाल स्थिति और किसानों की समस्याओं जैसे अहम मुद्दों पर सवाल उठाए जाते हैं, तो इसका सीधा लाभ जनता को मिलता है। लेकिन जब पत्रकारों को मनोरंजक या चाटुकारिता से जुड़े सवालों तक सीमित कर दिया जाता है, तो लोकतंत्र कमजोर पड़ जाता है। देहरादून की यह बहस इस बात की गवाही देती है कि पत्रकारिता को उसके असली रास्ते पर लौटना होगा। पत्रकारों के सवालों से बचने के बजाय नेताओं को यह समझना चाहिए कि सवाल पूछना लोकतांत्रिक संस्कृति का हिस्सा है और जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करने का सबसे अहम माध्यम भी। आज मीडिया के एक बड़े हिस्से के पीआर तंत्र में बदल जाने से ऐसे वीडियो और घटनाएं कम देखने को मिलती हैं, जहां पत्रकार सीधे और कड़े सवाल पूछते हों। लेकिन इतिहास गवाह है कि पत्रकारिता का असली असर तभी दिखता है जब वह सवाल उठाती है और सत्ता को जवाबदेह बनाती है। लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए जरूरी है कि पत्रकार निडर होकर जनता की आवाज़ उठाते रहें और नेता उस आवाज़ को सुनने और जवाब देने के लिए तैयार रहें। देहरादून की इस घटना ने फिर यह साफ कर दिया कि लोकतंत्र में बहस और सवालों से भागना नहीं, बल्कि उनका सामना करना ही असली नेतृत्व की पहचान है।
✍️ रिपोर्ट : एलिक सिंह
संपादक – समृद्ध भारत समाचार पत्र
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