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आईजीआरएस :: न्याय का द्वार या ‘फर्जी आख्या’ की फैक्ट्री?

।। जिस व्यवस्था को जनता की समस्याओं के त्वरित और पारदर्शी निस्तारण के लिए बनाया गया था, वह अब कागजी खानापूर्ति और 'कट-पेस्ट' रिपोर्टों का अड्डा बनती जा रही है।।

अजीत मिश्रा (खोजी)

#IGRS: न्याय का द्वार या ‘फर्जी आख्या’ की फैक्ट्री?

उत्तर प्रदेश में सुशासन का दम भरने वाला ‘जनसुनवाई-समाधान’ पोर्टल (IGRS) आज अपनी विश्वसनीयता के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। जिस व्यवस्था को जनता की समस्याओं के त्वरित और पारदर्शी निस्तारण के लिए बनाया गया था, वह अब कागजी खानापूर्ति और ‘कट-पेस्ट’ रिपोर्टों का अड्डा बनती जा रही है।

1. आँकड़ों की बाजीगरी बनाम धरातल का सच

पोर्टल के डैशबोर्ड पर शिकायतों के निस्तारण का प्रतिशत अक्सर 95% से ऊपर रहता है। मुख्यमंत्री कार्यालय इसे अपनी सफलता मानता है, लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भयावह है। यहाँ ‘निस्तारण’ (Disposal) का अर्थ ‘समाधान’ (Resolution) नहीं, बल्कि केवल ‘फाइल बंद करना’ (Closing the file) बनकर रह गया है। अधिकारी केवल समय सीमा (Deadline) से बचने के लिए आधी-अधूरी और भ्रामक रिपोर्ट लगाकर शिकायत को ठंडे बस्ते में डाल देते हैं।

2. ‘कॉपी-पेस्ट’ रिपोर्ट का खेल

IGRS पर न्याय की उम्मीद रखने वाले फरियादी को अक्सर वैसी ही रिपोर्ट मिलती है जैसी उसने महीनों पहले देखी थी। वही पुराने शब्द, वही रटा-रटाया सरकारी तर्क। पुलिस और राजस्व विभाग के मामलों में तो यह और भी बदतर है। विपक्षी से मिलीभगत करके या बिना मौके पर गए, दफ्तर में बैठकर ‘निस्तारण आख्या’ लिख दी जाती है।

3. निस्तारण की गुणवत्ता का अभाव

पोर्टल पर फीडबैक का विकल्प तो है, लेकिन ‘असंतुष्ट’ रेटिंग का कोई ठोस प्रभाव नहीं पड़ता। यदि एक पीड़ित रिपोर्ट को गलत बताकर दोबारा शिकायत करता है, तो उसे फिर उसी अधिकारी के पास भेज दिया जाता है जिसके खिलाफ शिकायत थी। यह व्यवस्था “चोर से ही चोरी की जांच कराने” जैसी हास्यास्पद स्थिति पैदा करती है।

4. टालमटोल की संस्कृति

“मामला न्यायालय में विचाराधीन है” या “विपक्षी को हिदायत दे दी गई है”—ये वो दो जुमले हैं जिनके सहारे हजारों शिकायतों का गला घोंटा जाता है। क्या पोर्टल का काम केवल यह बताना है कि मामला कहाँ अटका है? या उसका काम समाधान सुनिश्चित करना है?

5. जवाबदेही का शून्य होना

आज तक शायद ही किसी बड़े अधिकारी पर ‘फर्जी रिपोर्ट’ लगाने के लिए दंडात्मक कार्रवाई हुई हो। जब तक ‘गलत आख्या’ (False Report) देने वाले अधिकारियों की सेवा पुस्तिका में प्रविष्टि (Adverse Entry) नहीं होगी और उन पर भारी जुर्माना नहीं लगेगा, तब तक यह पोर्टल केवल एक ‘डेटाबेस’ बना रहेगा, ‘न्याय का मंदिर’ नहीं।

निष्कर्ष

IGRS पोर्टल तकनीकी रूप से एक बेहतरीन ढांचा है, लेकिन इसकी आत्मा (जवाबदेही) मर चुकी है। इसे ‘फर्जी रिपोर्ट फैक्ट्री’ बनने से रोकने के लिए केवल तकनीक नहीं, बल्कि प्रशासनिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। मुख्यमंत्री को चाहिए कि वे ‘रैंडम’ आधार पर निस्तारित शिकायतों की जांच बाहरी एजेंसियों से कराएं, ताकि पता चल सके कि पोर्टल पर जो ‘संतुष्टि’ दिख रही है, वो जनता की है या केवल बाबुओं के कीबोर्ड की।

वरना, ‘जनसुनवाई’ केवल ‘जन-अनसुनी’ का एक डिजिटल संस्करण बनकर रह जाएगी।

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