प्रेस विज्ञप्ति
केरल
*प्रकाशनार्थ*
*केरल के निकायों में भाजपा की जीत का नैरेटिव और जमीनी हकीकत*
*(आलेख : संजय पराते)*
केरल के स्थानीय निकायों के चुनाव में भाजपा द्वारा बड़ी छलांग लगाने और तिरुवनंतपुरम कॉर्पोरेशन में कब्जा करने का गोदी मीडिया द्वारा बड़े पैमाने पर प्रचार किया जा रहा है। गोदी मीडिया का दुष्प्रचार यह भी है कि केरल में वाम मोर्चे का जनाधार ही खत्म हो गया है और आने वाले विधान सभा चुनाव में अब मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होने जा रहा है।
वास्तविकता क्या है, इसे जानने के लिए किस पार्टी या मोर्चे को कितने वोट और सीटें मिली हैं, इस पर नजर डालना जरूरी है। तिरुवनंतपुरम कॉर्पोरेशन में माकपा नीत वामपंथी-जनवादी मोर्चा अभी भी पहले नंबर की ताकत है। वाम मोर्चे को 1,75,000 वोट मिले हैं, जबकि भाजपा को 1,65,000 वोट और कांग्रेस नीत मोर्चे को 1,25,000 वोट ही मिले हैं। भाजपा की जीती हुई 50 वार्डों में से 41 वार्डों में कांग्रेस मोर्चा तीसरे नंबर पर है और इनमें से 25 वार्डों में उसे 1,000 से भी कम वोट मिले हैं। इन सभी सीटों पर माकपाई मोर्चा दूसरे स्थान पर है और 7 वार्डों में वह 60 से भी कम वोटों से हारी है। तिरुवनंतपुरम मूलतः कांग्रेस की सीट है और भाजपा को जो कुछ भी बढ़त मिली है, वह वोटों के कांग्रेस से भाजपा की ओर प्रवाह का नतीजा है। तिरुवनंतपुरम कॉर्पोरेशन के चुनाव में कांग्रेस के कथित असंतुष्ट नेता, जो अब लगभग भाजपा नेता के रूप में में अपनी काया पलट चुके हैं, शशि थरूर की भूमिका किसी से छुपी हुई नहीं है। उनके इस रुख के बावजूद कांग्रेस ने भाजपा की हार को सुनिश्चित करने का कोई प्रयास नहीं किया, क्योंकि कांग्रेस केरल की राजनीति में अपना असली दुश्मन माकपा को मानती है। उसे इस बात से कोई मतलब ही नहीं था कि इस चुनाव में भाजपा की बढ़त का पूरे देश में क्या राजनैतिक संदेश जाएगा। साफ है कि माकपा नीत वाम मोर्चे को हराने के लिए कांग्रेस और भाजपा का अप्रत्यक्ष गठबंधन काम कर रहा था।
तिरुवनंतपुरम कॉर्पोरेशन में भाजपा की बढ़त से साफ हो गया है कि कांग्रेस का यह दावा खोखला है कि उसमें अकेले ही भाजपा को हराकर सत्ता से बाहर रखने की ताकत है। चुनाव नतीजों ने साफ कर दिया है कि कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व और राहुल गांधी धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रतिबद्ध होने की कितनी ही डींगें क्यों न मार लें, वास्तविकता यही है कि निचले स्तर का स्थानीय नेतृत्व और शशि थरूर जैसे नेता भी उसे गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है और कहीं भी, किसी भी समय भाजपा के हाथों खेलने के लिए तैयार हैं।
कांग्रेस के दोगलेपन के कारण तिरुवनंतपुरम कॉर्पोरेशन के चुनाव में सीटों के मामले में भाजपा भले ही सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई हो, लेकिन न वह बहुमत हासिल कर पाई है और न ही सबसे ज्यादा वोट पाने वाला मोर्चा बन पाया है।
स्थानीय निकाय चुनावों में वाम मोर्चे को झटका लगने के गोदी मीडिया के प्रचार के विपरीत वास्तविकता यह है कि नगर पालिकाओं और जिला पंचायतों में भी भाजपा को करारा झटका लगा है। उसे पिछली बार 4 नगरपालिका में बहुमत हासिल हुआ था, तो इस बार वह केवल 2 नगर पालिकाएं ही जीत पाई है। इसी प्रकार, पिछली बार उसके पास 14 जिला पंचायतों में 3 सीटें थीं, तो इस बार केवल एक सीट पर ही वह कब्जा कर पाई है। 941 ग्राम पंचायतों में से केवल 6 ग्राम पंचायतों में ही वह बहुमत हासिल कर पाई है। इसके विपरीत, वाम मोर्चा ने 343 ग्राम पंचायतों, 63 ब्लॉक पंचायतों, 7 जिला पंचायतों, 28 नगर पालिकाओं में जीत हासिल की है।
2020 में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपाई मोर्चे को 15 प्रतिशत वोट मिले थे, जो 2024 के लोकसभा चुनाव में बढ़कर 19.4 प्रतिशत हो गए थे। इस बार के स्थानीय निकाय चुनाव में उसे केवल 14.5 प्रतिशत वोट ही मिले हैं, जो पूरे केरल में उसके जनाधार में गिरावट को दिखाता है।
कांग्रेसी मोर्चे यूडीएफ़ का मत प्रतिशत भी स्थानीय निकाय चुनावों में पिछली बार के 37.9 प्रतिशत की तुलना में इस बार 37.1 प्रतिशत रह गया है, जबकि माकपाई मोर्चे एलडीएफ का मत प्रतिशत पिछली बार के 40.2 प्रतिशत के मुकाबले इस बार बढ़कर 41.6 प्रतिशत हो गया है। यह माकपाई मोर्चे के वोटों में 1.4 प्रतिशत की वृद्धि है। माकपा को मंथन करना होगा कि वह अपने वोटों को सीटों में क्यों नहीं बदल पाई?
6 ग्राम पंचायतों, जिला पंचायतों में 3 सीटों, 2 नगरपालिकाओं और 1 नगर निगम में जीत के साथ भाजपा का पक्षधर गोदी मीडिया पूरे केरल में भाजपा की जीत का नैरेटिव सेट करना चाहता है। लेकिन समग्रता में देखें, तो झटका वामपंथ को नहीं, दक्षिणपंथी भाजपा को ही लगा है और केरल की आम जनता ने उसकी विभाजनकारी सांप्रदायिक नीतियों को खारिज किया है। असली टक्कर, और यह आगामी विधानसभा चुनावों के लिए वास्तव में कड़ी टक्कर बनने जा रही है, कांग्रेस और माकपा मोर्चों के बीच ही है।
इन चुनावों के बाद माकपा ने यह महत्वपूर्ण रुख अख्तियार किया है कि जहां उसके पास बहुमत नहीं है, वहां वह विपक्ष में रहकर आम जनता को उसके मुद्दों पर संगठित करेगी और जन संघर्ष को तेज करेगी, लेकिन वह सांप्रदायिक पार्टियों के साथ कोई गठबंधन नहीं करेगी। उसने कहा है कि वह उन सभी निर्दलीयों के साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार है, जो वामपंथ के साथ सहयोग करना चाहते है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि केरल में सत्ता में आने की ललक में कांग्रेस कौन-सी चाल चलती है और उसकी चाल से भाजपा को कितना फायदा होता है? वैसे पिछली बार के अपवाद को छोड़ दिया जाएं, तो केरल का इतिहास सत्ता बदलने का इतिहास रहा है, जिसका फायदा कांग्रेस को ही मिल सकता है। लेकिन जिस प्रकार उसने स्थानीय निकाय चुनाव में पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा वोट बटोरे हैं, यदि वह इसे सीटों में बदल पाई, तो एक नया चमत्कार भी देखने को मिल सकता है।
*(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)*
Devashish Govind Tokekar
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