
प्राणी के पुनः-पुनः जन्म मृत्यु के भय से मुक्त करती है पुनपुन – संजय कुमार मिश्र “अणु”
गडहनी। अभी पितरों के प्रति पिंडदान का समय चल है। देश-विदेश से बडी संख्या में लोग अपने पितरों के गति मुक्ति के लिए गयाजी में आ रहे है और वहां के पंडा-पुरोहित धड़ल्ले से पिंडदान का कार्य करवाकर अपने यजमान को छोड दे रहे हैं पर हमारे शास्त्रों में गया ऐसा विधान नहीं है। इसके लिए हमारे श्रद्धालु उतने दोषी नहीं हैं जितने की पंडितजी और तीर्थ पुरोहित हैं।हो सकता है यजमान को इस विधि विधान की कम जानकारी हो या फिर न हो।तब उचित-अनुचित का ज्ञान देना भी तीर्थ पुरोहितों का काम है। जिससे तीर्थयात्रियों पिंडदानियों का मनोरथ सिद्ध हो।पहला पिंडदान पुनपुन के पावन तट पर पिंडदान करने का हीं विधान तत्पश्चात धर्मारण्य में और अंततः फल्गु के पावन तट पर।भारत का एक ब्राह्मण संजय कुमार मिश्र उर्फ अणु ने कहा कि पुनपुन और फल्गु नदी दोनों छोटानागपुर के पठार से निकली है।फल्गु का उद्गम झारखंड प्रदेश चतरा जिला के लावालौंग पहाडी से जबकि पुनपुन नदी का उद्गम पलामू जिला से है।ये दोनों नदियों का तट पितरों का तरण-तारण कर देता है।फल्गु नदी चतरा जिला झारखंड से निकलकर बिहार प्रदेश के गया जिला से होते हुए जहानाबाद जिला में बहती है और अंततः पुनपुन नदी में मिल जाती है।पुनपुन नदी का प्राकट्य कैसे हुआ इसकी रोचक जानकारी पुराणों में है।ऐसा कहा जाता है कि जगत कल्याणार्थ महर्षि च्यवन तपस्या कर रहे थे। तपस्या के प्रभाव से ब्रह्मदेव अति प्रसन्न हुए और महर्षि च्यवन को दर्शन दिए। महर्षि च्यवन जगत पिता को देख अति प्रसन्न हुए और चरण पखार कर चरणोदक को अपने कमंडल में रख लिया। कमंडल को ज्यों हीं महर्षि च्यवन धरती पर रखा वह लुढ़क गया। महर्षि उसे पुनः पुनः संभालते रहे पर वह दिव्य चरणोदक पृथ्वी पर गीरकर उतर दिशा की ओर बहने लगी।ये पुनः पुनः गीरने और उसे संभालने की क्रिया देख ब्रह्मदेव ने ” पुनः पुनः” शब्द का उच्चारण किया और उस धारा का नामकरण पुनः पुन: किया जो पुनपुन के नाम से लोक में प्रतिष्ठित हुआ।
सच कहा जाय तो जो जीवात्मा को धरती पर पुन: पुनः आने से मुक्त कर दे वही पुनपुन है। “नदीपुण्यापुन:पुन:” कहकर शायद यही इंगित किया गया है। पुनपुन को गंगा की सहायक नदी कही गई।लोक में ऐसी धारणा है कि जब गंगा नदी इस धरती पर नहीं थी तब भी यह पुनपुन नदी थी। यानि पुनपुन नदी गंगा से भी प्राचीनतम नदी है।गरुड़ पुराण में “आद्रिगंगापुन: पुनः” कहकर इसकी महता प्रतिपादित की गई है जोकि लोक में आदि गंगा पुनपुन के रूप में समादृत है। पितरों के मुक्ति का प्रथम घाट है पुनपुन।
जो कोई श्रद्धालु पुनपुन घाट से पितृ कार्य प्रारंभ कर धर्मारण्य होते हुए अंततः फल्गु तट पर अपने पितरो के लिए पिंडोदक प्रदान कर भगवान गदाधर का दर्शन करता है वह बिना प्रयास अपने पितरों को परम पद प्रदान करने में अतिसहायक बनता है।वैसे भी लोक धारणा यही है कि पुत्र वही है जो गया श्राद्ध करे। जो पितरों पुम नामक नरक के कष्टों से त्राण अर्थात रक्षा करता है वही पुत्र पद का अधिकारी है। पुत्र पितर है या पितर हीं पुत्र है।हम यह सनातन संस्कृति में सुनते आ रहे हैं कि “पुत्रासो यत्र पितरो भवंति”।