
अजीत मिश्रा (खोजी)
“पत्रकार एकजुट क्यों नहीं हो पाते”
पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानी जाती है, और पत्रकार समाज की आंख, कान और जुबान होते हैं। इसके बावजूद पत्रकारों में एकजुटता की कमी एक गंभीर समस्या बन चुकी है। हर पत्रकार या मीडिया संस्थान अपनी पहचान, TRP, और एक्सक्लूसिव खबर की दौड़ में लगा रहता है। यह प्रतिस्पर्धा उन्हें सहयोग के बजाय प्रतिस्पर्धी बना देती है।
कुछ पत्रकार अपने व्यक्तिगत लाभ (सरकारी लाभ, विज्ञापन, पहचान) के लिए अलग राह पकड़ लेते हैं।
भारत में पत्रकार संगठनों की कोई कमी नहीं है, परंतु हर संगठन एक-दूसरे से अलग और बंटा हुआ है। नेतृत्व की आपसी खींचतान और पद की राजनीति एकता में सबसे बड़ा रोड़ा है। कई बार संगठन नेताओं के व्यक्तिगत प्रचार का माध्यम बन गया है अधिकांश पत्रकार किसी न किसी मीडिया हाउस से जुड़े होते हैं, जिनके अपने कॉर्पोरेट हित होते हैं।
पत्रकार स्वतंत्र रूप से निर्णय नहीं ले सकते, जिससे वे संगठनों या आंदोलनों से जुड़ने से डरते हैं।
नौकरी जाने का भय, संपादकों या मालिकों का दबाव, और प्रशासनिक दमन से पत्रकार खुलकर एकजुटता नहीं दिखा पाते। ग्रामीण और फ्रीलांस पत्रकारों की स्थिति और भी असुरक्षित होती है। पत्रकारिता में क्षेत्रीयता (राज्य, जिला), भाषा (हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आदि), और वैचारिक मतभेद (वामपंथ, दक्षिणपंथ) एकजुटता में बाधा बनते हैं। इन भेदों के कारण एक साझा मंच पर आना कठिन हो जाता है।
पत्रकारों के लिए एक मजबूत राष्ट्रीय कानून, सुरक्षा नीति, पेंशन, बीमा, कल्याण कोष जैसी व्यवस्थाएं आज भी अधूरी हैं। जब तक सरकार या न्यायपालिका पत्रकारों की एकता को मान्यता नहीं देगी, उनकी आवाज एक नहीं होगी। कुछ पत्रकारों द्वारा किया गया पक्षपातपूर्ण, बिकाऊ या अफवाह आधारित काम पूरे समुदाय की छवि को प्रभावित करता है।
जब खुद समाज पत्रकारों पर भरोसा नहीं करता, तो आपसी विश्वास और संगठन निर्माण और भी कठिन हो जाता है।