
सागर। वंदे भारत लाईव टीवी न्यूज रिपोर्टर सुशील द्विवेदी। स्त्री शक्ति की प्रतीक अहिल्याबाई होल्कर ने संकटों का सामना करते हुए जिस प्रकार स्वाभिमान और दृढ़तापूर्वक अपना जीवन जिया वह आज भी नारी की शक्ति, धैर्य और संवेदनाओं का अनुपम उदाहरण है। इस वर्ष हम रानी अहिल्याबाई की 300 वीं जन्मजयंती मना रहे हैं। ऐसे सुअवसर पर रानी के जीवन और कर्म का स्मरण कर हमें उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। वस्तुतः हम पाश्चात्य भौतिकतावादी विचारों में पड़ कर अपने गौरवशाली अतीत को भूलते जा रहे थे किन्तु एक बार फिर हमें अवसर मिला है कि हम अपने विराट व्यक्तित्व के धनी पूर्वजों का पुनः स्मरण करें और अपना शीश गर्व से ऊंचा करें। तो आइए एक संक्षिप्त दृष्टि डालते हैं यशस्विनी रानी अहिल्याबाई होल्कर के जीवन और कर्म पर। अहिल्याबाई होल्कर का जन्म वर्ष 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के जामखेड, अहमदनगर के चौंढी नामक गांव में हुआ था। उनके पिता मान्कोजी शिन्दे के एक सामान्य किसान थे। अहिल्याबाई मनकोजी शिन्दे एवं सुशीला शिन्दे की इकलौती पुत्री थीं अतः उन्हें माता-पिता का भरपूर स्नेह मिला। अहिल्याबाई बचपन से ही एक सीधी और सरल स्वभाव की बालिका थीं। वे दूसरों का दुख देखकर द्रवित हो उठती थीं। बाल्यावस्था से ही उनके मन में जनकल्याण की भावना थी। वे धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। अहिल्याबाई प्रतिदिन मंदिर जातीं और भगवान की पूजा-अर्चना करतीं। उन दिनों छोटी आयु में बेटियों का विवाह कर दिया जाता था। अहिल्याबाई की आयु उस समय मात्र 10 की थी जब होल्कर वंशीय राज्य के संस्थापक मल्हार राव होल्कर के पुत्र खण्डेराव के साथ उनका विवाह कर दिया गया। एक सामान्य परिवार की नन्हीं बालिका अहिल्या होल्कर राजपरिवार की बहू बन गईं। यह स्थिति भी उनके लिए एक बड़ी चुनौती थी किंतु उन्होंने अपने लगन और कर्तव्यनिष्ठा से अपने सास-ससुर, पति व अन्य सम्बन्धियों के हृदयों को जीत लिया। अहिल्याबाई के विवाह के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि मल्हार राव होलकर अपने योग्य पुत्र के लिए योग्य वधु की तलाश में निकले थे। तभी अचानक उनका सामना अहिल्याबाई से हुआ और वे अहिल्याबाई के विलक्षण व्यक्तित्व को पहचान गए तथा उन्हें अपनी बहु बनाने का निर्णय ले लिया। एक योग्य बहू के रूप में रहते हुए समय के अनुरूप अहिल्याबाई ने क्रमशः एक और एक पुत्री को जन्म दिया। पूरा होल्कर परिवार प्रसन्नता से भर उठा। किंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था। अहिल्याबाई होल्कर उस समय मात्र 29 वर्ष की आयु थी जब उनके पति खंडेराव होल्कर का निधन हो गया। राजा खांडेराव होलकर कुंभेर के युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हो गए। कुछ इतिहासकारों के अनुसार शोकाकुल रानी अहिल्याबाई ने सती होने का निर्णय लिया। तब उनके पिता समान ससुर मल्हार राव होलकर ने उन्हें सती होने से रोका और उनके दायित्वों का उन्हें स्मरण कराया। इसके बाद सन् 1766 ई. में उनके ससुर मल्हारराव होल्कर का भी देहांत हो गया। इससे राज्य पर संकट के बादल मंडराने लगे तब अहिल्याबाई होल्कर ने आगे बढ़ कर शासन की बागडोर सम्हाली। उनके कल्याणकारी शासन काल में होलकर साम्राज्य में कई उल्लेखनीय कार्य हुए जो आमजन के हित में थे। जीवन की स्थितियां सम्हलती हुई प्रतीत हो रही थीं की तभी दुर्भाग्य ने एक बार फिर अहिल्याबाई होलकर के सुखों के द्वार पर दस्तक दिया। एक के बाद एक काल का कठोर प्रहार उन्हें झेलना पड़ा और उनसे उनके पुत्र मालेराव, पुत्री मुक्ता, दामाद फणसे और दोहित्र नाथू भी सदा के लिए बिछड़ गए। कोई सामान्य स्त्री होती तो इतने आघातों के बाद हताश और निराश हो जाती। किंतु वे रानी अहिल्याबाई होल्कर थी जिन पर पूरे साम्राज्य का दायित्व था वह होलकर साम्राज्य की जनता की “राजमाता” थीं, पालिका थीं, वे परिस्थितियों से हार नहीं मान सकती थीं । उन्होंने अपने दुख को दबाकर सफलतापूर्वक अपने राजकीय दायित्वों का निर्वाह किया। उन्होंने कृषि को बढ़ावा दिया और कुटीर उद्योगों को विकसित किया। उनके शासनकाल में व्यापार और वाणिज्य को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला। उन्होंने सार्वजनिक भवनों और सड़कों का निर्माण कराया। अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भी जनहित के कार्य किए। उन्होंने विभिन्न तीर्थ स्थानों मंदिरों, घाटों, कुँओं और बावडियों का निर्माण कराया तथा जहां आवश्यक था वहां जीर्णोद्धार भी कराया। उन्होंने तीर्थ स्थलों एवं घाटों पर अन्न एवं पेयजल की व्यवस्थाएं भी कराईं। अहिल्याबाई होल्कर का बुंदेलखंड से कोई सीधा संबंध नहीं था किंतु उन्होंने जानकारी मिलने पर बुंदेलखंड के कई तीर्थ स्थलों के लिए भी धन उपलब्ध कराया। वे एक उदार एवं लोकप्रिय शासिका थीं। उनकी प्रजा उन्हें एक राजमाता ही नहीं वरन एक देवी के समान सम्मान देती थी। रानी अहिल्याबाई ने महिला शिक्षा पर भी ध्यान दिया। वे स्त्रियों के लिए शिक्षा को आवश्यक मानती थीं। रानी अहिल्याबाई विधवा महिलाओं की की भलाई के लिए राज्य में प्रचलित कानून में आवश्यक बदलाव किए। उनके द्वारा शासन सम्हालने से पूर्व कानून था कि पुत्रविहीन विधवा स्त्री की पूरी संपत्ति राजकोष में जमा कर दी जाती थी। यह बात रानी अहिल्याबाई को उचित नहीं लगी और उन्होंने विधवा स्त्रियों को उनके पति की संपत्ति पर अधिकार दिलाए जाने का कानून बनाया और उसे दृढ़ता पूर्वक लागू किया। यह एक बहुत बड़ा निर्णय था जिसका परंपरावादी कट्टरपंथियों के द्वारा विरोध भी किया गया किंतु रानी अपने निर्णय पर अडिग रहीं और उन्होंने विधवा स्त्रियों के हित में कानून लागू करके ही माना।
वह दुखद तिथि 13 अगस्त, 1795 की थी जब नर्मदा तट पर स्थित महेश्वर के किले में राजमाता अहिल्याबाई होल्कर ने चिरनिद्रा को ग्रहण किया। रानी अहिल्याबाई होलकर दैहिक रूप से भले ही इस दुनिया से विदा हो गईं किंतु उनकी दृढ़ता, स्त्रियों और आमजन के हित में किए गए उनके कार्यों तथा धर्म स्थलों के लिए उनके अवदान ने उन्हें अमर बना दिया है। उन्होंने यह दिखा दिया की एक सामान्य परिवार में जन्म लेने वाली स्त्री भी अपने निश्चय एवं लगन से सफलता पूर्वक एक पूरा साम्राज्य संभाल कर परिवार, समाज और इतिहास के लिए एक आदर्श स्थापित कर सकती है।