
प्रेस विज्ञप्ति
लखनऊ, उत्तरप्रदेश
ऑपरेशन सिंदूर से डिजिटल विवेक तक: क्या अब मोदी युग ढलान पर है?
2014 में नरेंद्र मोदी का राजनीति में उदय एक नई शैली, नया आत्मविश्वास और ‘न्यू इंडिया’ के सपने के साथ हुआ। मीडिया मैनेजमेंट और नैरेटिव बिल्डिंग की जिस महारत ने उन्हें 10 वर्षों तक अजेय बनाए रखा, आज वही हथियार कुंद होता दिख रहा है। “ऑपरेशन सिंदूर”, जिसे राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद के आख्यान के रूप में पेश किया गया, उसी प्रचार तंत्र की नवीनतम कोशिश थी — लेकिन यह दांव अब न सिर्फ विफल रहा बल्कि सत्ता के नैरेटिव की थकान को भी उजागर कर गया।
ऑपरेशन सिंदूर: रणनीति या रक्षात्मक भ्रम?
“ऑपरेशन सिंदूर” के माध्यम से केंद्र सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ सर्जिकल एक्शन का संदेश देने की कोशिश की। लेकिन यह नैरेटिव उतना ही टिकाऊ साबित हुआ, जितना एक ट्रेंडिंग हैशटैग।
जहाँ पहले ऐसे अभियानों से जनमत निर्माण होता था, आज जनता चाहती है:
- “सबूत क्या हैं?”
- “अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया क्या रही?”
- “इससे जमीन पर क्या बदला?”
ऐसे में यह ऑपरेशन प्रचार से अधिक प्रभाव नहीं छोड़ पाया, और इसके समानांतर विपक्ष ने आरक्षण, जातिगत जनगणना और युवा मुद्दों पर आक्रामकता दिखाकर बीजेपी को राजनीतिक किनारे पर धकेल दिया।
बिहार का सर्वे: बदलाव की आहट
पोल ट्रैकर सर्वे के अनुसार बिहार में यूपीए सरकार की वापसी की संभावना जताई जा रही है और राहुल गांधी युवा मतदाताओं की पहली पसंद बनकर उभरे हैं।
मोदी जहाँ 39% युवाओं की पसंद बने, वहीं राहुल को 47% का समर्थन मिला। यह आंकड़े 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले एक चेतावनी हैं — अब चुनावी युद्ध सिर्फ भावनाओं पर नहीं, मुद्दों पर लड़े जाएंगे।
AI और फैक्ट-फाइंडिंग: जनता अब विवेकशील है
पिछले कुछ वर्षों में AI तकनीक, सोशल मीडिया और स्वतंत्र फैक्ट-फाइंडिंग संगठनों ने एक नया लोकतांत्रिक इकोसिस्टम तैयार कर दिया है, जहाँ अब सरकार या मीडिया के दावों को आँख मूँद कर नहीं स्वीकारा जाता।
- चुनावी वादों और नीतियों का डेटा विश्लेषण
- झूठे या भ्रामक दावों की त्वरित पड़ताल
- टीवी डिबेट्स के पीछे की मंशा का भेदन
जनता अब सिर्फ वोटर नहीं, विश्लेषक भी है। यह बदला हुआ नागरिक बोध प्रधानमंत्री मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, क्योंकि अब उन्हें नैरेटिव नहीं, निष्कर्ष देना होगा।
- राजनीतिक थकान और सीमित विकल्प :
मोदी सरकार की रणनीतिक शैली में अब एक दोहरे दबाव की स्थिति है:
- एक ओर कॉर्पोरेट मीडिया पर निर्भर पुरानी नैरेटिव प्रणाली है,
- दूसरी ओर विपक्ष की मुद्दों पर केंद्रित जमीनी राजनीति।
जातिगत जनगणना का मुद्दा, जिसे भाजपा पहले नकारती रही, अब उनके लिए मजबूरी बनता जा रहा है। लेकिन इस मोड़ पर मुड़ने का मतलब है — अपनी ही पुरानी विचारधारा से टकराना।
अंतरराष्ट्रीय किरकिरी: “विश्वगुरु” छवि का संकट
G-7 जैसे मंचों पर प्रधानमंत्री मोदी की उपस्थिति कभी भारत की ताकत मानी जाती थी। लेकिन अब कनाडा के साथ तनाव, और पश्चिमी मीडिया की आलोचनात्मक निगाहें, इस छवि को झटका देने लगी हैं।
- क्या डोनाल्ड ट्रंप अब भी उतने सहयोगी हैं?
- क्या ‘डंका बज गया’ वाली छवि फिर से गूंज पाएगी?
क्या यह ढलती हुई चमक है?
मोदी युग एक ऐसा दौर रहा है जिसने भारतीय राजनीति की भाषा, लय और लाइटिंग तक को बदल डाला। परंतु हर युग का अंत भी उसी गति से आता है, जैसे उसका उदय हुआ था — तेज़, अप्रत्याशित और पब्लिक-सेंट्रिक।
आज जब ऑपरेशन सिंदूर जैसे आख्यान जनता के बीच गूंजने से पहले ही खंडित हो जाते हैं, तब यह सवाल उठता है:
- क्या यह “न्यू इंडिया” का अंत है या नए नेतृत्व की शुरुआत?
राजनीति का नैरेटिव अब AI, डेटा और जन-जागरण से लिखे जाएंगे, न कि सिर्फ भाषणों और इवेंट मैनेजमेंट से।
“जहाँ पहले सत्ता तय करती थी कि देश क्या देखेगा, अब जनता तय करती है कि सत्ता क्या देखेगी। यही लोकतंत्र की नई दिशा है।”
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