
बुरहानपुर म.प्र । मज़दूर यूनियन ने महात्मा ज्योतिबा फुले जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण करते हुए उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धा सुमन अर्पित किए। यूनियन अध्यक्ष ठाकुर प्रियांक सिंह ने कहा महात्मा ज्योतिबा फुले के क्रांतिकारी विचारों की आवश्यकता आज भी उतनी ही है जितनी कल थी इसलिए ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि कल ज्योतिबा थे इसी कारण आज समस्त महिलाएं और वंचित समाज के लोग शिक्षा की ओर अग्रसर हो पाएं।
माली समाज के आनंद महाजन, रितेश श्रीखंडे ने कहा फुले जी महान विचारक, समाज सेवी, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी विचारों वाले व्यक्ति थे उन्हीं महात्मा फुले की जिन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं, वंचितों और शोषित किसानों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया था। गौरतलब है कि 28 नवंबर 1890 को 63 साल की उम्र में ज्योतिबा फुले ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन ज्योतिबा फुले सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि समाज में बदलाव का एक आईना हैं।
महात्मा ज्योतिबा फुले का जीवन परिचय:
ज्योतिबाफुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 ई. में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। क्योंकि उनका परिवार कई दशकों से फूलों के गज़रे बेचने का काम करता था इसीलिए माली के काम में लगे ये लोग फुले के नाम से जाने जाते थे। ज्योतिबा फुले की माता का निधन इनके जन्म के महज़ एक साल के भीतर ही हो गया। जिसके बाद उन्हें उनके पिता का ही साया मिला। हालांकि पिता पर कई रूढ़ीवादी लोगों का प्रभाव था जिसके चलते पढ़ने के बहुत शौकिन ज्योतिबा का नाम पिता ने स्कूल से ही कटवा दिया। दरअसल कुछ लोगों ने उनके पिता के कान भरे थे कि अगर बेटा पढ़-लिख गया तो किसी काम का नहीं रहेगा, वह असभ्य बन जाएगा।
विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियां भी ज्योतिबा को ज्यादा दिनों तक पढ़ाई से दूर नहीं रख पाई और 21 वर्ष की उम्र में उन्होंने सातवीं कक्षा की पढ़ाई अंग्रेजी में पूरी की। उन्होंने सिर्फ अपने लिए ही नहीं महिलाओं और वंचितों के लिए भी समाज में समय रहते शिक्षा के महत्व को पहचाना और ये महसूस किया कि बहुजन समाज और उनके आसपास की महिलाएं शिक्षा की कमी के कारण गुलामी में जीने को मजबूर हैं।
बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष:
ज्योतिबा फुले पर लिखी कई किताबों में इसका जिक्र भी मिलता है कि उन्होंने न सिर्फ जरूरी शिक्षा प्राप्त की, अपितु विभिन्न वैचारिक ग्रंथों और क्रांतियों का अध्ययन किया। उन्होंने थॉमस पायने की किताब ‘राइट्स ऑफ़ मैन’ पढ़ी। जिसके बाद, उन्हें यह एहसास होने लगा कि मनुष्यों के कुछ बुनियादी अधिकार हैं और उन्हें प्राप्त करना उनका अधिकार है। उन्होंने गरीबों पिछड़ों के बीच शिक्षा के प्रचार-प्रसार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया जिसमें उनकी जीवनसाथी सावित्री बाई फुले ने भी उनका बखूबी साथ दिया।
रूढ़िवादियों के निशाने पर:
महात्मा फुले का मानना था कि महिलाओं के लिए स्कूल पुरुषों से ज़्यादा अहम हैं और यही कारण था कि उन्होंने उस समय रूढ़िवादी लोगों का गढ़ कहे जाने वाले पुणे में 1848 के समय अपने सहयोगियों के साथ भिडेवाड़ा में एक लड़कियों के स्कूल की शुरुआत की था। इस स्कूल के चलते वो एक बार फिर अपने पिता और रूढ़िवादियों के निशाने पर आ गए। पहले उन्हें स्कूल बंद करने की धमकियां मिलीं, फिर पिता ने ‘घर छोड़ दो या स्कूल बंद कर दो’ की शर्त रखी, लेकिन ज्योतिबा को कुछ भी उनके मकसद से डिगा नहीं सका।
सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष:
महात्मा फुले ने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ तो संघर्ष किया ही, उन्होंने कृषि के क्षेत्र में भी अपनी दूरदर्शिता का लोहा मनवाया। साल 1883 में ‘किसानों का कोडा’ नाम से उन्होंने एक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने बताया कि नौकरशाही, साहूकारों, बाज़ार व्यवस्था, जाति व्यवस्था, प्राकृतिक आपदाओं से किसानों की दुर्दशा बढ़ गई है। कई कृषि विशेषज्ञ मानते हैं कि इसमें कोई दो राय नहीं महात्मा फुले ने किसानों को लेकर जो समस्याएं तब उठाई थीं, वे आज के दौर में भी बहुत हद तक मौजूद हैं और इसका एक बड़ी कारण पूंजी व्यवस्था ही है।