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महाकुंभ भगदड़: मौन, मुआवजा और मनगढ़ंत आंकड़ों का खेल "एक त्रासदी जो भक्ति, शासन और सामाजिक संवेदनहीनता के त्रिकोण में उलझ गई"

महाकुंभ भगदड़: मौन, मुआवजा और मनगढ़ंत आंकड़ों का खेल "एक त्रासदी जो भक्ति, शासन और सामाजिक संवेदनहीनता के त्रिकोण में उलझ गई"

          प्रेस विज्ञप्ति 
        लखनऊ, उत्तरप्रदेश 

महाकुंभ भगदड़: मौन, मुआवजा और मनगढ़ंत आंकड़ों का खेल
“एक त्रासदी जो भक्ति, शासन और सामाजिक संवेदनहीनता के त्रिकोण में उलझ गई”

प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ को सरकार ने ‘आध्यात्मिक भारत की भव्य झलक’ और ‘विश्व का सबसे बड़ा आयोजन’ कहकर प्रचारित किया। मगर 29 जनवरी 2025 की भगदड़ में दर्जनों श्रद्धालुओं की मौत ने इस महिमा मंडन के पीछे छिपी त्रासदी और लापरवाही को उजागर कर दिया। बीबीसी की खोजी रिपोर्ट ने सरकारी आंकड़ों, मुआवजा वितरण, और सत्य को दबाने की रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।

  1. राजनीतिक परिप्रेक्ष्य: प्रचार बनाम जवाबदेही

    महाकुंभ को एक राजनीतिक ब्रांडिंग टूल की तरह इस्तेमाल करना, नरेन्द्र मोदी सरकार की विशिष्ट शैली बन चुका है। “मोदी हैं तो मुमकिन है” जैसी घोषणाएं और मंत्रियों की ट्वीट-श्रृंखला में ‘सबसे भव्य कुंभ’ का वर्णन, आयोजन को एक राष्ट्रीय गौरव के रूप में प्रस्तुत करने की सत्ताधारी दल की रणनीति का हिस्सा थी।

    लेकिन जब 29 जनवरी को भगदड़ हुई, तब सरकार की पहली प्रतिक्रिया मौन थी। मौतों को अस्वीकार करना, फिर राष्ट्रीय नेताओं की श्रद्धांजलि के बाद 37 मौतों को स्वीकारना — यह सब एक सुनियोजित छवि बचाव तंत्र का हिस्सा था। बीबीसी की रिपोर्ट में कम से कम 82 मौतों का दावा और मुआवजे में नकद वितरण जैसी असामान्य बातों ने सरकार की पारदर्शिता को कठघरे में खड़ा कर दिया।

    क्या सरकार डिजिटल इंडिया का झंडा उठाकर मुआवजा नकद में बांटेगी? वह भी बिना लिखित आदेश के?

    राजनीतिक परिपक्वता का तक़ाज़ा था कि सरकार विपक्ष द्वारा उठाए गए प्रश्नों का उत्तर देती, लेकिन इसके विपरीत संसद में चर्चा तक को रोका गया। जवाबदेही से यह पलायन लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।

    1. सामाजिक परिप्रेक्ष्य: श्रद्धा या शोषण का उपकरण?

    महाकुंभ केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, भारत की सामूहिक आस्था का जीवंत स्वरूप है। लेकिन जब यही आस्था भीड़ प्रबंधन की अनदेखी, सुरक्षा की चूक और व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के कारण जानलेवा बन जाए, तो यह प्रश्न उठाना ज़रूरी हो जाता है: क्या हमारी श्रद्धा सरकारों के लिए छूट का लाइसेंस बन गई है?

    भगदड़ में मारे गए ज़्यादातर लोग समाज के सबसे निचले तबके से थे — जिनकी मौत पर शोक तो दूर, मुआवजे तक में धोखा किया गया। फर्जी कागज़ों पर दस्तखत, अधूरी जानकारी, और नकद में भुगतान — यह सब दिखाता है कि हाशिए पर खड़े लोगों की जान की कीमत आज भी शून्य है।

    क्या आस्था इतनी शक्तिशाली हो गई है कि वह सत्य और न्याय के लिए आवाज उठाने की नैतिकता को दबा दे।

  2. वैचारिक परिप्रेक्ष्य: लोकतंत्र की आत्मा पर हमला

    भगदड़ की यह घटना प्रशासनिक विफलता से कहीं अधिक एक वैचारिक संकट को उजागर करती है। जब सत्ताएं सच छुपाएं, मीडिया चुप हो जाए और जनता की स्मृति कमजोर हो जाए, तो लोकतंत्र सिर्फ आंकड़ों का खेल बनकर रह जाता है।

    बीबीसी जैसी स्वतंत्र संस्थाएं जब शासन के प्रचार तंत्र को बेनकाब करती हैं, तो सरकार की प्रतिक्रिया जांच या माफ़ी की नहीं, बल्कि प्रतिशोध की होती है। मीडिया की स्वतंत्रता पर बढ़ते हमले लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा आघात हैं।

    सवाल यह नहीं कि कितने लोग मरे, सवाल यह है कि क्यों मरे — और उनके नाम, उनके परिवार, उनके अधिकार कहाँ हैं?

  • आस्था की आड़ में जवाबदेही से पलायन कब तक?

    महाकुंभ जैसी घटनाएं हमारे राष्ट्रीय चरित्र की परख हैं। यह त्रासदी हमें सिखाती है कि भव्य आयोजनों की चमक के पीछे अक्सर लापरवाही, लालच और संवेदनहीनता का अंधकार छिपा होता है।

    सरकार को अब “महिमामंडन” से बाहर आकर स्पष्ट आंकड़े, निष्पक्ष जांच और पारदर्शिता के साथ सामने आना होगा। सिर्फ मुआवजे नहीं, जवाबदेही की भी कीमत तय करनी होगी।

    यह समय है कि नागरिक समाज, मीडिया और न्यायपालिका तीनों मिलकर सत्ता से सवाल पूछें — नहीं तो आने वाली त्रासदियां और अधिक भीषण होंगी।

            विनम्र अनुरोध :
    

    “यदि हम अब भी चुप रहे, तो कल यही चुप्पी हमारे लोकतंत्र को लील जाएगी।”

    कागज़ों में दर्ज हैं उसकी साँसों के हिसाब,
    फाइलों में दबी है उसकी जीवन की किताब।
    ना आवाज़ बची, ना शक्ल कोई खास,
    वो अब बस एक संख्या है — आम जन की लाश।

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