
प्रेस विज्ञप्ति
लखनऊ, उत्तरप्रदेश
जी”डेमोक्रेसी बनाम डेटाक्रेसी: जब नागरिकता डेटा बिंदु में बदल जाए”
* लोकतंत्र का अदृश्य अपहरण
21वीं सदी का भारत न केवल वैश्विक तकनीकी क्रांति का सहभागी है, बल्कि एक ऐसे संक्रमण काल से भी गुजर रहा है, जहां लोकतंत्र (Democracy) की आत्मा को ‘डेटाक्रेसी’ (Data-cracy) नामक एक नए, मौन, पर अत्यंत प्रभावशाली मॉडल द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है।
यह संक्रमण केवल प्रशासनिक तकनीकीकरण नहीं है, बल्कि राजनीतिक नियंत्रण, संवैधानिक संतुलन, सामाजिक चेतना और वैचारिक स्वतंत्रता के समक्ष खड़े एक मौन संकट की घंटी है।
राजनैतिक दृष्टिकोण: मतदाता नहीं, उपभोक्ता
डेटा-आधारित राजनीति अब विचारधाराओं और लोकनीति के स्थान पर व्यवहार विश्लेषण और भावनात्मक ट्रिगरिंग पर आधारित हो गई है।
राजनीतिक पार्टियां अब:
- डेटा माइनिंग,
- टारगेटेड सोशल मीडिया विज्ञापन,
- और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) द्वारा मतदाताओं की प्रोफाइलिंग का उपयोग करके जनता की सोच, व्यवहार और प्राथमिकताओं को नियंत्रित करने लगी हैं।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में चुनावी रणनीति का बड़ा हिस्सा डिजिटल डेटा और माइक्रो-टारगेटिंग पर आधारित था।
यह एक ऐसा नया युग है जहाँ राजनीतिक ‘संवाद’ नहीं, बल्कि ‘कंटेंट’ बिकता है, और मतदाता एक उपभोक्ता में बदल जाता है।
संविधानिक दृष्टिकोण: निगरानी बनाम निजता
भारत का संविधान नागरिकों को स्वतंत्रता, निजता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। लेकिन “डेटाक्रेसी” इन अधिकारों के विरुद्ध एक तकनीकी आक्रमण है।
आधार डेटा, डिजिटल हेल्थ कार्ड, स्कूल और चुनावी एप्स जैसे माध्यमों से व्यक्ति का हर क्रियाकलाप रिकॉर्ड किया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट के Puttaswamy बनाम भारत सरकार (2017) निर्णय में निजता को मौलिक अधिकार माना गया, पर आज उसका क्षरण साफ़ दिखता है।
जब सरकार या राजनीतिक दल जन डेटा को सत्ता के औजार में बदल दें, तो यह संविधान के मूल ढांचे पर एक प्रश्नचिह्न बन जाता है।
सामाजिक दृष्टिकोण: सूचनाओं का आभासी गुलाम समाज
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर जनता का व्यवहार अब एल्गोरिद्म संचालित हो गया है।
हर व्यक्ति जो पढ़ता है, देखता है, सुनता है — वह डेटा-संचालित इको-चैंबर द्वारा नियंत्रित है। इससे:
- सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ता है,
- दूसरे पक्ष की सुनने की क्षमता समाप्त होती है,
- और भीड़तंत्र में बुद्धि का स्थान भावनात्मक प्रतिक्रियाओं ने ले लिया है।
नागरिकता अब सोशल मीडिया पर बने डेटा प्रोफाइल्स से परिभाषित होती है, न कि संवैधानिक अधिकारों से।
वैचारिक दृष्टिकोण: लोकतंत्र की आत्मा का ह्रास
लोकतंत्र केवल संख्या आधारित शासन नहीं, बल्कि एक आचरण आधारित प्रणाली है — जहाँ विचार, बहस, असहमति और आलोचना को सम्मान मिलता है; लेकिन “डेटाक्रेसी” इस वैचारिक ढांचे को ख़त्म करती है:
- सत्य की जगह “वायरल डेटा” ले लेता है,
- और जनमत संगठित प्रचार अभियानों द्वारा निर्मित किया जाता है।
“सत्य अब सर्वाधिक क्लिक किए गए पोस्ट में नहीं, सबसे गूंजते हैशटैग में छिपा है।”
लोकतंत्र में सवाल पूछना अधिकार है, पर डेटाक्रेसी में सवाल उठाने वाला संदिग्ध बन जाता है।
वर्तमान संदर्भ में विश्लेषण: भारत और वैश्विक परिदृश्य
- अमेरिका में Cambridge Analytica स्कैंडल ने डेटा-आधारित मतदाता हेरफेर के खतरों को उजागर किया।
- भारत में मतदाता सूची, स्वास्थ्य डेटा, राशन डेटा के केंद्रीयीकरण ने निगरानी और दमन के खतरे को जन्म दिया है।
चुनावी मशीनरी भी अब डेटा आधारित माइक्रो-मैनेजमेंट में बदल चुकी है — जिसमें व्यक्ति का वोट केवल मतदान तक सीमित नहीं, बल्कि उसकी डिजिटल गतिविधि से पूर्व-निर्धारित होता है।
- डेमोक्रेसी को पुनः प्राणवायु देने की आवश्यकता :
लोकतंत्र का सबसे बड़ा शत्रु अब तानाशाही नहीं, बल्कि डेटाक्रेसी का सूक्ष्म नियंत्रित जाल है।
जहाँ जनता को लगता है कि वह स्वतंत्र है, लेकिन उसके विकल्पों की दिशा पहले ही निर्धारित हो चुकी होती है।
👉 यह समय है कि हम “डेटा का अधिकार” नहीं, बल्कि “डेटा पर अधिकार” की मांग करें।
👉 यह आवश्यक है कि हम डिजिटल साक्षरता, निजता कानून, एल्गोरिद्म पारदर्शिता और स्वतंत्र मीडिया के लिए जागरूक हों।“लोकतंत्र का पुनरुद्धार तभी होगा जब नागरिक केवल ‘डेटा पॉइंट’ नहीं, ‘निर्णय बिंदु’ बनेंगे।”
“डेमोक्रेसी बनाम डेटाक्रेसी” आज केवल एक तकनीकी बहस नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक अस्तित्व का प्रश्न है।
यदि लोकतंत्र का स्थान डेटा-नियंत्रित, प्रभाव-प्रबंधित, और एल्गोरिदमिक सत्ता ने ले लिया —
तो फिर जनता केवल एक ‘डेटा पॉइंट’ बनकर रह जाएगी — न बोलने योग्य, न सुने जाने योग्य।
अब प्रश्न यह नहीं कि “डेटा हमारा है या नहीं”,
बल्कि यह है कि “क्या लोकतंत्र अब भी हमारा है?”
देश का आम नागरिक अब महज एक आंकड़ा भर रह गया है।
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