
नई दिल्ली:-सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को किसी भी विधेयक पर फैसला लेने के लिए 3 महीने की डेडलाइन तय की है. देश में ऐसा पहली बार हुआ है, जब राष्ट्रपति के लिए ऐसा फैसला सुनाया गया हो. दरअसल जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजते हैं, तो राष्ट्रपति उस पर निर्णय लेते हैं. अगर डेडलाइन (3 महीने) से ज्यादा समय लगा तो राज्य सरकार इसके पीछे की वजह के बारे में बताना होगा.
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचार के लिए आरक्षित विधेयकों पर, उसे भेजे जाने की तिथि से तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए। न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने 8 अप्रैल को 415 पृष्ठों के फैसले में 10 विधेयकों को मंजूरी दे दी, जिन्हें तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि ने राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए सुरक्षित रख लिया था। उन्होंने सभी राज्यपालों के लिए राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए एक समयसीमा निर्धारित की और कहा कि हम गृह मंत्रालय द्वारा निर्धारित समयसीमा को अपनाना उचित समझते हैं और निर्धारित करते हैं कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा उनके विचार के लिए आरक्षित विधेयकों पर उस तारीख से तीन महीने की अवधि के भीतर निर्णय लेना आवश्यक है, जिस दिन ऐसा संदर्भ प्राप्त होता है।
शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि किसी भी देरी के मामले में राज्य सरकार को उचित कारण बताया जाना चाहिए। यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख लेते हैं और राष्ट्रपति उस पर अपनी स्वीकृति रोक लेते हैं, तो राज्य सरकार अदालत में कार्रवाई कर सकती है। संविधान के अनुच्छेद 200 के अनुसार, राज्यपाल प्रस्तुत विधेयक पर स्वीकृति दे सकते हैं, या स्वीकृति रोककर उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकते हैं। हालांकि संविधान में स्वीकृति प्रदान करने के लिए समय अवधि का उल्लेख नहीं है, लेकिन किसी विधेयक को अनावश्यक रूप से लंबे समय तक विलंबित करना राज्य की कानून बनाने वाली मशीनरी में बाधा उत्पन्न करने के रूप में माना जाएगा।
राज्य को बतानी होगी बात
इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “हम गृह मंत्रालय द्वारा निर्धारित समय-सीमा को अपनाना उचित समझते हैं और निर्धारित करते हैं कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा उनके विचार के लिए आरक्षित विधेयकों पर उस तिथि से तीन महीने की अवधि के भीतर निर्णय लेना आवश्यक है. अगर इसके बावजूद भी देरी होती है तो उचित कारणों को दर्ज करना होगा और संबंधित राज्य को बताना होगा. राज्यों को भी सहयोगात्मक होना चाहिए और उठाए जा सकने वाले प्रश्नों के उत्तर देकर सहयोग करना चाहिए और केंद्र सरकार द्वारा दिए गए सुझावों पर शीघ्रता से विचार करना चाहिए.
क्या है अधिकार
अदालत ने कहा, जहां राज्यपाल राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक आरक्षित करता है और राष्ट्रपति उस पर अपनी सहमति नहीं देते हैं, तो राज्य सरकार के लिए इस न्यायालय के समक्ष ऐसी कार्रवाई का विरोध करना खुला होगा. बता दें कि संविधान का अनुच्छेद 200 राज्यपाल को उनके समक्ष प्रस्तुत विधेयकों पर स्वीकृति देने, स्वीकृति रोकने या राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखने का अधिकार देता है.
सर्वोच्च न्यायालय ने समय-सीमा निर्धारित की और कहा कि इसका अनुपालन न करने पर राज्यपालों की निष्क्रियता न्यायालयों द्वारा न्यायिक समीक्षा के अधीन हो जाएगी। विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ स्वीकृति न दी जाए या आरक्षित रखा जाए, तो राज्य मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर राज्यपाल से अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसी कार्रवाई तत्काल करें, जिसकी अधिकतम अवधि एक माह होगी।
सुप्रीम कोर्ट की राष्ट्रपति को लेकर यह फैसला इसलिए सुनाया, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 201 में यह नहीं बताया गया है कि राष्ट्रपति को कितने समय में फैसला लेना चाहिए. बता दें कि कोर्ट की यह टिप्पणी 8 अप्रैल के उस फैसले में आई है जिसमें तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि का फैसला गलत बताया गया.
SC ने तय की डेडलाइन
जस्टिस जे बी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा, अगर कोई संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति समय पर अपना काम नहीं करता, तो अदालत चुप नहीं बैठेगी. अगर राष्ट्रपति किसी बिल पर सहमति नहीं देते हैं, तो राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में जा सकती है. जस्टिस पारदीवाला ने कहा कि अनुच्छेद 201 के अनुसार राष्ट्रपति के पास दो ही विकल्प होते हैं — या तो वह विधेयक को मंजूरी दें या फिर उसे अस्वीकार करें. लेकिन संविधान में यह नहीं बताया गया है कि उन्हें यह फैसला कितने समय में लेना चाहिए. यही बात लंबे समय से केंद्र और राज्यों के बीच विवाद की वजह बनी हुई है.
कोर्ट ने कहा, अनुच्छेद 201 में कोई समयसीमा नहीं है इसकी मतलब यह नहीं कि राष्ट्रपति अपने काम को टालते रहे. बिल जब तक राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं मिलती, तब तक वह कानून नहीं बन सकता और इस तरह से जनता की इच्छा को लंबित रखना संविधान की संघीय भावना के खिलाफ है. ऐसी स्थिति में राज्य सरकार अदालत के पास जा सकती है.
इस मामले में सुनाया फैसला
जानकारी के अनुसार, तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन ने नवंबर 2023 में 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया था. ये बिल पहले ही राज्य विधानसभा से दोबारा पास किए जा चुके थे. कोर्ट ने कहा कि यह प्रक्रिया कानून के अनुसार नहीं थी, जैसे राज्यपाल के पास किसी विधेयक पर पूर्व वीटो का अधिकार नहीं है, वैसे ही राष्ट्रपति के पास भी ऐसा कोई अधिकार नहीं है. राष्ट्रपति किसी विधेयक पर सहमति नहीं देते हैं, तो उन्हें सही कारण बताने होंगे
पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने अपनी एक टिप्पणी में सलाह दी है कि राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर राज्यपालों द्वारा भेजे गए लंबित विधेयकों पर फैसला ले लेना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर दिए गए अपने फैसले में यह टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि के पास लंबित 10 विधेयकों को पारित करने का आदेश दिया। ये विधेयक राज्यपाल ने राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेजने के चलते लंबित किए हुए थे। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को यह फैसला दिया था और फैसले की कॉपी बीती रात सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड हुई है।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या टिप्पणी की
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव देते हुए राष्ट्रपति के पास विधेयकों को लंबित रखने की समयसीमा भी तय करने की बात कही है। सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की अध्यक्षता वाली पीठ ने 8 अप्रैल को दिए अपने फैसले में कहा कि ‘हम गृह मंत्रालय द्वारा निर्धारित समय-सीमा को अपनाए जाने को उचित समझते हैं और ये सलाह देते हैं कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा उनके विचारार्थ आरक्षित विधेयकों पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना जरूरी है।’ पीठ ने कहा कि इस समयसीमा से ज्यादा की देरी होने पर उचित कारण देने होंगे और इस बारे में संबंधित राज्य को सूचित करना होगा। राज्यों को भी सहयोगात्मक होना चाहिए और विधेयक को लेकर उठाए जा रहे सवालों के उत्तर देकर सहयोग करना चाहिए और केंद्र सरकार द्वारा दिए गए सुझावों पर तेजी से विचार करना चाहिए।’