
संवाददाता – दुष्यन्त वर्मा/ श्रावस्ती
श्रावस्ती। उत्तर प्रदेश सरकार ने जैसे ही विद्यालयों के विलय का ऐलान किया, वैसे ही सरकारी स्कूलों में वर्षों से चाय और गप्पों में तपस्या कर रहे कामचोर शिक्षकों की आत्मा काँप उठी। कुछ के तो चाय के प्याले हाथ से गिर गए, और कुछ ने तो डर के मारे व्हाट्सएप पर “जय शिक्षा” वाला स्टेटस ही लगा दिया।
इन महान शिक्षकों का दर्शनशास्त्र बड़ा सीधा था — विद्यालय आओ, हाजिरी लगाओ, स्टाफ रूम में चौपाल सजाओ, छुट्टी बजते ही बाइक दौड़ाओ।
बच्चे पढ़े या भैंस चराए, इससे क्या फर्क पड़ता है? आखिर, “हमारे आराम का हक भी तो कोई चीज है!”
अब जब सुना कि छोटे-छोटे स्कूलों का विलय होकर एक बड़ा स्कूल बनेगा, तो मानो इन कामचोरों के पैरों तले से कुर्सी खिसक गई।
👉 अब तो हर जगह सीसीटीवी होगा,
👉 हर कक्षा में बच्चे होंगे (और बच्चे पढ़ाई भी माँगेंगे!),
👉 ऊपर से प्रधानाचार्य जी रोज चक्कर लगाएंगे।
ये वही शिक्षक हैं जो अभी तक बच्चों को पढ़ाने की बजाय उन्हें “गोलियाँ देने” में माहिर थे:
“अरे बेटा, किताब खोल लो, मैं अभी आता हूँ।”
फिर वही ‘अभी’ कभी खत्म नहीं होता था, और गुरुजी स्टाफ रूम में खो जाते थे।
अब हालत ये है कि कुछ शिक्षकों ने गला खराब होने का बहाना शुरू कर दिया है। कोई कह रहा है, “मेरा गला बैठ गया, बच्चों को पढ़ाऊँगा तो शिक्षा विभाग पर केस कर दूँगा!”
कुछ ने तो कमर दर्द, हाई बीपी, नीचे गिरा हीमोग्लोबिन, और ऊपर चढ़ा शुगर लेवल का सर्टिफिकेट बनवाना शुरू कर दिया है।
गाँव के चौराहे पर चर्चा गर्म है —
“क्यों जी, गुरुजी बहुत उदास दिख रहे हैं?”
दूसरा बोला, “अरे भाई, उनकी तो सरकारी आरामगाड़ी ही डूब गई। अब न चाय की पक्की गारंटी, न आराम की पूरी छुट्टी!”
इतना ही नहीं, कुछ शिक्षकों ने अब बच्चों को प्यारे-प्यारे नाम से पुकारना शुरू कर दिया है। वही बच्चा जो कल तक गुरुजी को स्कूल गेट पर देखकर उल्टी दिशा में भाग जाता था, अब वही बच्चा सम्मानित अतिथि बन गया है।
गुरुजी: “आओ मुन्ना, कैसे हो? चॉकलेट लोगे?”
मुन्ना: “गुरुजी, तबादला हो गया क्या?”
अब तो व्हाट्सएप पर भी शिक्षकों के ग्रुप में क्रांति का माहौल है।
“हम पर अत्याचार हो रहा है!”
“शिक्षक भी इंसान होते हैं!”
“हम पढ़ाने के लिए नहीं, फाइलों में दस्तखत करने के लिए नियुक्त हुए हैं!”
ऐसे में कुछ शिक्षकों ने अपनी आदत सुधारने का नाटक भी शुरू कर दिया है। किताब हाथ में लेकर फेसबुक लाइव कर रहे हैं — “देखिए, शिक्षा के क्षेत्र में मेरी मेहनत!” जबकि किताब उल्टी पकड़ी हुई है।
असल में, विद्यालय विलय ने इनके आराम और आलस्य की जड़ों में मट्ठा डाल दिया है। अब मजबूरी में कक्षा में जाना पड़ेगा, बच्चों को पढ़ाना पड़ेगा, और क्या पता बच्चों के सवालों का जवाब भी देना पड़ जाए — ये तो इनके लिए 21वीं सदी की सबसे भयानक सजा है!
अंतिम भावनात्मक अपील
अब इन बेचारे कामचोर शिक्षकों के आँसू पोछने कोई नहीं आएगा। आराम की कुर्सी, स्टाफ रूम की चाय, चुनावी ड्यूटी के बहाने, और हर महीने की मोटी पगार — सब धीरे-धीरे खिसक रहा है।
विद्यालय विलय ने जैसे ही कुंभकरणी निद्रा में सो रहे शिक्षकों को झकझोरा है, वैसे ही इनका जीवन त्राहिमाम-त्राहिमाम कर उठा है।
अब देखना यह है कि ये गुरुजन शिक्षा के असली रणक्षेत्र में उतरेंगे या फिर पुराने बहानों के किले में दुबक कर बैठे रहेंगे। पर एक बात तो तय है — बच्चों के लिए यह ज्ञानोत्सव है, और कामचोर शिक्षकों के लिए यह आरामविनाश महायज्ञ!