
प्रयागराज: अज्ञात लाशें और मौन प्रशासन – क्या इंसानियत इतनी सस्ती हो गई है?
प्रयागराज। पोस्टमार्टम हाउस की दीवार पर चिपकी अज्ञात लाशें एक गंभीर सवाल खड़ा करती हैं। मौनी अमावस्या के दिन संगम में हुई भगदड़ में हुई मौतों की संख्या को सरकारी आंकड़ों में 30 बताया गया था, लेकिन क्या यही असली सच्चाई है? सरकार को इन 30 मौतों का आंकड़ा साझा करने में 17 से 19 घंटे क्यों लगे? क्या बाकी मौतों को सिर्फ आंकड़ों में दबा दिया गया?
यह तस्वीरें हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि इन मृतकों की पहचान का प्रयास कौन करेगा? प्रशासन ने इस संवेदनशील मुद्दे को मीडिया और जनता की नजरों से दूर रखने की कोशिश की है। अखबारों में कोई विज्ञापन नहीं, न ही इस पर कोई विशेष प्रयास का संकेत है। क्या यह लाशें सिर्फ इसलिए गुमनाम रह जाएंगी क्योंकि इन्हें पहचानने वाला कोई नहीं बचा? या फिर प्रशासन इस जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहा है?
मानवता पर सवाल
यह तस्वीरें सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि मानवता पर भी गहरा सवाल उठाती हैं। हर तस्वीर के पीछे एक परिवार है, जो शायद अपने प्रियजन को ढूंढ़ रहा है। उन्हें यह हक है कि वे जानें कि उनके अपने कहां हैं। कौन है जो इन शवों की पहचान करेगा? क्या इनकी जान की कोई कीमत नहीं है?
क्या हमारी व्यवस्था संवेदनहीन हो गई है?
कभी हम एक-दूसरे के साथ मिलकर मुश्किलों का सामना करते थे, लेकिन आज हम ऐसे सवालों से दूर क्यों भाग रहे हैं? क्या हमारी व्यवस्था इतनी संवेदनहीन हो चुकी है कि इंसानियत को भी पहचानने से इंकार कर रही है? क्या हम अज्ञात लाशों को छोड़कर, और अपनी आंखें मूंदकर आगे बढ़ते रहेंगे?
यह घटना अव्यवस्था और अनुत्तरदायित्व का ही एक उदाहरण है, जहां प्रशासन ने किसी गंभीर जांच या पहचान अभियान की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए। कहीं न कहीं यह हमारी संवेदनशीलता की कमी का भी प्रतीक है।
समय की जरूरत: आवाज उठाना
अब समय आ चुका है कि हम सवाल उठाएं, ताकि ऐसी चित्रें फिर कभी न बनें। हमें सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी मौत, कोई भी दुर्घटना, अज्ञात न रहे, और प्रशासन इन मुद्दों को नज़रअंदाज न करे। इन अज्ञात लाशों के पीछे केवल आंकड़े नहीं, बल्कि अधिकार, सम्मान और मानवाधिकार भी हैं।
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