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11 वर्षों का लेखा-जोखा: वादों से जुमलों तक—एक समग्र विश्लेषण

11 वर्षों का लेखा-जोखा: वादों से जुमलों तक—एक समग्र विश्लेषण

           प्रेस विज्ञप्ति 
         लखनऊ उत्तरप्रदेश 

11 वर्षों का लेखा-जोखा: वादों से जुमलों तक—एक समग्र विश्लेषण

2014 में जब नरेंद्र मोदी पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने, तो उनके भाषणों और घोषणाओं में एक नया भारत गूंजता था—भ्रष्टाचार मुक्त, बेरोज़गारी मुक्त, महंगाई रहित, विकासशील नहीं बल्कि विकसित भारत। उन्होंने हर वर्ग, हर समुदाय और हर क्षेत्र को ‘सबका साथ, सबका विकास’ का भरोसा दिलाया। अब जब 2024 में उनके नेतृत्व में तीसरी बार सरकार बनी है और शासन को 11 साल पूरे हो चुके हैं, तो यह जरूरी है कि हम उन वादों का मूल्यांकन करें जिन्हें करके यह सत्ता मिली थी।

यह विश्लेषण सिर्फ भावनात्मक नहीं बल्कि ठोस तथ्यों, संवैधानिक संकेतों और सामाजिक यथार्थ पर आधारित है।

आर्थिक दृष्टिकोण:

  1. महंगाई:

2014 में चुनाव प्रचार के केंद्र में रसोई गैस, पेट्रोल, दाल, दूध और सब्जी की महंगाई थी। पर 11 सालों बाद यही चीजें अब मध्यम वर्ग और गरीबों के लिए दुर्लभ विलासिता बन चुकी हैं।

  • रसोई गैस ₹400 से बढ़कर ₹1000 के पार।
  • पेट्रोल-डीजल ₹70 से ₹100+।
  • दालें जो कभी ₹50-60 थीं, अब ₹130-160 किलो।

वित्त मंत्रालय और RBI के आंकड़ों के अनुसार, खुदरा महंगाई दर औसतन 6% से ऊपर बनी रही, जबकि असंगठित क्षेत्र के लिए यह 9% से अधिक मानी गई है।

  1. बेरोज़गारी:

2014 में हर साल 2 करोड़ नौकरियाँ देने का वादा किया गया था। लेकिन CMIE (Centre for Monitoring Indian Economy) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में बेरोज़गारी दर अप्रैल 2024 तक 8% से ऊपर रही, और शहरी युवा वर्ग (15-29 वर्ष) में यह 18-23% के बीच झूलती रही। अर्थव्यवस्था की जीडीपी वृद्धि के आँकड़े भी ‘जॉबलेस ग्रोथ’ की ओर इशारा करते हैं।

  1. कालाधन:

“100 दिन में विदेशों से कालाधन वापस लाएँगे,” यह चुनावी मंचों पर सबसे चर्चित वादा था। सरकार ने 2016 में नोटबंदी को इसी उद्देश्य से उचित ठहराया, लेकिन RBI की रिपोर्ट (2018) ने बताया कि 99.3% नोट वापस बैंकों में लौट आए। न काला धन मिला, न आतंकवाद रुका, न नकली नोट। उलटे, असंगठित क्षेत्र को भारी धक्का लगा।

संवैधानिक दृष्टिकोण:

  1. संस्थाओं की स्वायत्तता पर चोट:

CBI, ED, IT जैसे केंद्रीय जांच एजेंसियों का उपयोग राजनैतिक विरोधियों पर कार्रवाई के लिए किया गया। सुप्रीम कोर्ट तक को कई बार टिप्पणी करनी पड़ी कि “सत्ता का दुरुपयोग हो रहा है।”

  1. संसद की गरिमा और कार्यवाही:

11 वर्षों में संसद के कई सत्र बिना बहस के सिर्फ़ अध्यादेशों के माध्यम से चलाए गए। विपक्ष के नेताओं को निलंबित करना, विशेष सत्र न बुलाना, और एकतरफा नीतियाँ लागू करना संसदीय लोकतंत्र की आत्मा पर आघात है।

वैचारिक दृष्टिकोण:

  1. ध्रुवीकरण की राजनीति:

सरकार का मूल वैचारिक आधार हिंदुत्व-राष्ट्रवाद रहा है, जो चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण के रूप में उभरता है। नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), NRC जैसे कदमों ने संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना को चुनौती दी।

  1. एक राष्ट्र, एक भाषा का दबाव:

हिंदी थोपने के प्रयास, नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा, और सांस्कृतिक विविधता को “एक रंग” में रंगने की कोशिशें—ये भारत की बहुलतावादी पहचान के विपरीत हैं।

सामाजिक दृष्टिकोण:

  1. सामाजिक न्याय का ह्रास:

दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग के अधिकारों को लेकर कई विरोधाभासी घटनाएं हुईं। विश्वविद्यालयों में आरक्षित वर्गों के साथ भेदभाव और आत्महत्याओं में वृद्धि इसका प्रमाण हैं।

  1. महिला सुरक्षा और अधिकार:

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ सिर्फ़ पोस्टर तक सीमित रहा। उन्नाव, हाथरस, कठुआ जैसे मामलों में सत्ता की चुप्पी सवाल खड़े करती है।

  1. मानवाधिकार और अल्पसंख्यक:

मॉब लिंचिंग, हेट स्पीच, और पुलिस के पक्षपातपूर्ण रवैये से अल्पसंख्यकों में भय का वातावरण पैदा हुआ। अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों (जैसे UNHRC और Freedom House) ने भारत की स्थिति को ‘Partly Free’ बताया।

राजनैतिक दृष्टिकोण:

  1. विपक्ष-विहीन लोकतंत्र का निर्माण :

चुनाव आयोग, चुनावी बॉन्ड, मीडिया का प्रबंधन—इन सबके जरिए राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को असमान बनाया गया। एक ‘चयनित लोकतंत्र’ का माहौल बना, जहाँ चुनाव हो रहे हैं, लेकिन विकल्प गुम हैं।

  1. मीडिया का सरकारीकरण :

Mainstream मीडिया का बड़ा वर्ग सरकारी प्रचारक बन चुका है। प्रेस की स्वतंत्रता के सूचकांक में भारत अब 180 देशों में 159वें स्थान पर है (RSF रिपोर्ट, 2024)।

  • लोकतंत्र के लिए अवसर या खतरा?

11 वर्षों में मोदी सरकार ने बहुत कुछ बदला, पर क्या भारत की आत्मा को समृद्ध किया?

  • आर्थिक मोर्चे पर बेरोज़गारी, महंगाई और असमानता बढ़ी।
  • संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा कमज़ोर हुई।
  • वैचारिक स्तर पर सहिष्णुता और बहुलता का स्थान संकीर्ण राष्ट्रवाद ने ले लिया।
  • सामाजिक स्तर पर समानता और स्वतंत्रता का स्थान भय और विभाजन ने ले लिया।
  • और राजनैतिक स्तर पर लोकतंत्र में संवाद का स्थान प्रचार और दमन ने ले लिया।

प्रधानमंत्री मोदी यह दावा कर सकते हैं कि जनता उन्हें बार-बार चुनती रही है, पर सवाल यह है: क्या भारत में लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ़ बहुमत भर रह गया है? या वह एक ऐसा विमर्श है जिसमें हर विचार को जगह मिलती है, हर आवाज़ को सुना जाता है?

11 साल बाद यह मंथन आवश्यक है—”हमारे पास सत्ता है, लेकिन क्या हमारे पास लोकतंत्र बचा है?”

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            Editor 
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