
अजीत मिश्रा (खोजी)
।। खाद संकट पर नेताओं की चुप्पी : घास-भूसा खा लेंगे, पर सच नहीं बोलेंगे।।
बस्ती-यूपी ।। खेत सूख रहे हैं, किसान परेशान हैं, समितियों पर धक्कामुक्की मची है, लेकिन सत्ता पक्ष के नेता मौन साधे बैठे हैं। उनकी चुप्पी का संदेश साफ है – “जनता ने वोट नहीं दिया तो खाद की चिंता क्यों करें?”
पूर्व सांसद हरीश द्विवेदी खामोश हैं, वहीं सांसद राम प्रसाद चौधरी खुद को लाचार बताकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे हैं। असलियत यह है कि इन नेताओं की “खेती” खेतों में नहीं होती, बल्कि अस्पताल, स्कूल, मिल और ठेका–पट्टों में लहलहाती है। गेहूं-धान से उन्हें कोई सरोकार नहीं, उनकी नजर सिर्फ कमीशन की फसल पर टिकी रहती है। किसान अब भी उम्मीद लगाए बैठा है कि उसके दर्द की आवाज़ कोई उठाएगा। लेकिन नेता जानते हैं कि सच बोलना उनके लिए खतरा है। उनके लिए राजनीति का हिसाब बिल्कुल सीधा है – जनता भूखी मरे तो मरे, किसान खाद की लाइन में जान दे तो दे, लेकिन ठेका, मुनाफा और कुर्सी सुरक्षित रहनी चाहिए। याद दिला दें कि यही नेता चुनाव के वक्त खाद, बीज, बिजली और पानी पर भाषणों की फसल बोते हैं। मगर जैसे ही चुनाव बीतते हैं, किसानों की समस्याओं का ठेला सीधा राजनीति की नाली में डाल दिया जाता है। आज स्थिति यह है कि किसान के खेत में खाद नहीं है, लेकिन नेताओं की ज़ुबान पर ताला लटका हुआ है। और यही ताला उनकी सबसे बड़ी ताकत बन चुका है – “चुप रहो, मलाई खाओ और जनता को समझाओ कि यही राजनीति है।”
किसान अब यह समझ ले कि नेताओं की भूख खेत की फसल से नहीं मिटती। उनकी भूख मिटती है ठेके की मलाई और कुर्सी की ताकत से। बाकी जनता चाहे रोटी खाए, पत्ते खाए या फिर घास-भूसा।