
जब गांव के स्कूलों पर ताले लगे तो सपनों की खिड़कियाँ भी बंद हो गईं
— शालिनी सिंह पटेल ने केंद्रीय शिक्षा मंत्री को लिखा पत्र, बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ की नीति पर उठाए सवाल
नई दिल्ली/लखनऊ। उत्तर प्रदेश में संचालित प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शासकीय विद्यालयों के एकीकरण (Merger) अथवा बंदीकरण (Closure) की वर्तमान सरकारी नीति को लेकर अब सत्ताधारी तंत्र से इतर आवाजें भी मुखर होने लगी हैं। जनता दल यूनाइटेड की उत्तर प्रदेश प्रदेश उपाध्यक्ष शालिनी सिंह पटेल ने इस नीति की आलोचना करते हुए केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान को एक विचारोत्तेजक पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने इस नीति को सामाजिक और व्यवहारिक दृष्टि से गंभीर खामियों वाला बताया है। रजिस्टर्ड डाक द्वारा भेजे गए पत्र में शालिनी सिंह पटेल ने लिखा है कि यह नीति, जो कागजों में शिक्षा की गुणवत्ता, संसाधनों की दक्षता और प्रशासनिक सुधार के उद्देश्य से शुरू की गई प्रतीत होती है, वह ज़मीनी हकीकत में ग्रामीण समाज की संवेदनाओं, संरचना और जरूरतों से पूरी तरह असंगत साबित हो रही है।
उन्होंने लिखा है कि महज छात्र संख्या और विद्यालयों के आपसी भौगोलिक अंतर को आधार बनाकर गांव के प्राचीन और स्थानीय स्तर पर उपयोगी स्कूलों को बंद किया जा रहा है, जबकि ये विद्यालय ग्रामीण जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक केंद्र रहे हैं। विशेष रूप से बालिकाओं की उपस्थिति पर इसका प्रतिकूल असर देखा जा रहा है। दूरस्थ स्कूलों तक आने-जाने में असुरक्षा, लंबी दूरी और परिवहन की अनुपलब्धता जैसी व्यावहारिक बाधाओं ने गरीब, दलित, आदिवासी और वंचित तबकों की बेटियों को शिक्षा से दूर कर दिया है।
उन्होंने लिखा है कि कई परिवारों ने छोटे बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया है। शिक्षा के सार्वभौमिक अधिकार (RTE) की जो भावना है, वह इस नीति से आहत हो रही है। यह केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं है, बल्कि एक सामाजिक विश्वासघात जैसा महसूस हो रहा है। ग्रामीण विद्यालय केवल पठन-पाठन के केंद्र नहीं होते, बल्कि वे स्थानीय जनता की सहभागिता, सामूहिक चेतना और सांस्कृतिक पहचान के जीवंत प्रतीक होते हैं। जब किसी गांव से उसका स्कूल हटा दिया जाता है, तो वहां केवल एक भवन नहीं, बल्कि एक पीढ़ी की आकांक्षा ढह जाती है।
शालिनी सिंह पटेल ने सरकार से इस नीति पर पुनर्विचार की मांग करते हुए चार ठोस सुझाव दिए हैं। पहला, प्रत्येक जिले में सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन (Social Impact Assessment) कराया जाए ताकि निर्णय से पहले उसके दूरगामी परिणामों को समझा जा सके। दूसरा, प्रत्येक विद्यालय के सन्दर्भ में जनसंख्या घनत्व, भौगोलिक विषमता, बालिका अनुपात, सड़क संपर्क आदि मानकों को आधार बनाया जाए। तीसरा, विद्यालयों को बंद करने के बजाय उन्हें संधारणीय रूप से पुनः सशक्त किया जाए—जैसे मल्टीग्रेड टीचिंग, डिजिटल लर्निंग किट्स, स्थानीय शिक्षक प्रशिक्षण और पंचायत सहभागिता मॉडल को बढ़ावा दिया जाए। और चौथा, किसी भी विद्यालय को बंद करने से पूर्व ग्राम सभा की अनुशंसा अनिवार्य की जाए ताकि निर्णय थोपे नहीं जाएँ बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत लिये जाएं।
उन्होंने पत्र में यह भी लिखा कि जब सरकार गांव के बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के बजाय विद्यालयों को बंद करने लगे, तो यह सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं रह जाता, यह सवाल बन जाता है उस सपने का, जो हर माता-पिता अपने बच्चों की कॉपी-किताबों में सजाते हैं। शालिनी सिंह पटेल ने यह पत्र केवल एक राजनीतिक दल की उपाध्यक्ष के रूप में नहीं, बल्कि एक सामाजिक जिम्मेदारी निभाते हुए लिखा है। यह आवाज़ उस खामोश तबके की है, जो न राजधानी के गलियारों तक पहुँच सकता है, न आंकड़ों की भाषा बोल सकता है।
यह पत्र बताता है कि स्कूल बंद करना सिर्फ शैक्षणिक या बजटीय निर्णय नहीं, बल्कि वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक कटौती है, जो आने वाली पीढ़ियों को अंधेरे की ओर धकेल सकती है। ऐसे में अब यह जरूरी है कि सरकार केवल योजनाओं के मैप पर नहीं, जमीन पर रहने वाले नागरिकों के अनुभवों से नीति बनाना सीखे। सवाल केवल स्कूलों का नहीं, पूरे ग्रामीण भारत के सपनों का है—जो ताले लगने से पहले तक रोज सुबह घंटी की आवाज़ पर जागते थे।
ब्यूरो बांदा गिरजा शंकर अवस्थी