
📢 बड़ी खबर: चर्च ऑफ नॉर्थ इंडिया और एफडीसीबी के विलय पर कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला
नई दिल्ली, : भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 चर्च ऑफ नॉर्थ इंडिया (CNI) और फर्स्ट डिस्ट्रिक्ट चर्च ऑफ ब्रीदरेन (FDCB) के विलय को लेकर एक ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। अदालत ने इस मामले में गहरी चर्चा की और कई कानूनी पहलुओं पर अपनी राय व्यक्त की।
मुख्य मुद्दे:
- अदालत ने यह पूछा कि क्या FDCB का विलय CNI में कानूनी रूप से सही था, और क्या इस प्रक्रिया को सही तरीके से किया गया था?
- अदालत ने CNI के गठन और उसके पंजीकरण के मुद्दे को उठाते हुए पाया कि चर्च का पंजीकरण 1971 के बजाय 1980 में किया गया था, जो बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (BPTA) की धारा 18 के तहत गलत था।
- इसके अलावा, अदालत ने यह भी सवाल उठाया कि FDCB की संपत्तियों का प्रबंधन किसने किया और क्या कानूनी अनुमतियाँ ली गई थीं। इस संदर्भ में कोर्ट ने बताया कि BPTA के तहत किसी भी संपत्ति के हस्तांतरण से पहले चैरिटी कमिशनर की मंजूरी अनिवार्य है।
विलय में खामियाँ:
अदालत ने यह स्वीकार किया कि CNI का गठन कई कानूनी खामियों से भरा था, खासकर रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसी परिस्थितियों में किसी धार्मिक ट्रस्ट का पंजीकरण और संपत्तियों का प्रबंधन पारदर्शी और कानूनी तरीके से किया जाना चाहिए।
न्यायिक टिप्पणी:
इस मामले में अदालत ने कहा कि BPTA और SR एक्ट के तहत कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना बेहद जरूरी है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर इस तरह के मामलों में कोई ढील दी जाती है, तो इससे सार्वजनिक ट्रस्ट की कार्यप्रणाली और उनकी संपत्तियों के प्रबंधन पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
कानूनी संदर्भ:
कोर्ट ने Church of North India v. Lavajibhai Ratanjibhai और Vinod Kumar Mathurseva Malvia v. Maganlal Mangaldas Gameti जैसे मामलों का हवाला देते हुए बताया कि BPTA एक संपूर्ण कोड है, और इसमें निर्धारित प्रक्रियाओं का पालन न करना कानूनी रूप से गलत है।
नतीजा:
अदालत के इस फैसले से यह साफ हो गया है कि धार्मिक संस्थाओं और ट्रस्टों के गठन, विलय और संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता और कानूनी मानकों का पालन अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह फैसला कानूनी दृष्टिकोण से चर्चों और अन्य धार्मिक ट्रस्टों के लिए एक मार्गदर्शन का काम करेगा।
📢 सहारनपुर: चर्च ऑफ नॉर्थ इंडिया और एफडीसीबी के विलय पर ऐतिहासिक कानूनी निर्णय
नई दिल्ली/सहारनपुर, 2013: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने चर्च ऑफ नॉर्थ इंडिया (CNI) और फर्स्ट डिस्ट्रिक्ट चर्च ऑफ ब्रेथ्रेन (एफडीसीबी) के विलय को लेकर एक महत्वपूर्ण कानूनी फैसला दिया। यह मामला लंबे समय से चल रहा था, जिसमें CNI के गठन और एफडीसीबी के विलय को लेकर विभिन्न कानूनी मुद्दे उठाए गए थे। अदालत ने इस विलय को विधिक रूप से अवैध करार दिया, और बताया कि यह प्रक्रिया सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 और बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (BPTA) के नियमों के अनुरूप नहीं थी।
क्या था मामला?
एफडीसीबी, जो कि अमेरिकी ‘ब्रेथ्रेन चर्च’ से निकला था, ने 1970 में CNI के साथ विलय का प्रस्ताव किया था। इस विलय में CNI के पांच प्रमुख प्रोटेस्टेंट संप्रदायों को एकजुट किया गया था, जिनमें एफडीसीबी, द चर्च ऑफ इंडिया, पाकिस्तान, बर्मा और सीलोन, द मेथोडिस्ट चर्च, और अन्य शामिल थे। इस प्रक्रिया को कानूनी तौर पर चुनौती दी गई, खासकर एफडीसीबी के गुट द्वारा, जो इस विलय को अवैध मानते थे।
अदालत ने क्या कहा?
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि CNI का गठन 1970 में हुआ था, लेकिन इसे 1980 में पंजीकरण देने का प्रयास किया गया, जो BPTA के तहत अवैध था। अदालत ने यह भी कहा कि एफडीसीबी का विलय CNI में केवल एक विघटन को दर्शाता है, न कि एक कानूनी एकीकरण प्रक्रिया। इसके अलावा, अदालत ने CNI के गठन में कई लापरवाहियाँ भी पाई, जिनका जिक्र हाईकोर्ट ने किया था।
कानूनी जटिलताएँ:
- BPTA के तहत ट्रस्ट की संपत्ति का हस्तांतरण: अदालत ने साफ कहा कि ट्रस्ट की संपत्ति का हस्तांतरण बिना चैरिटी कमीशन की स्वीकृति के अवैध है, और यह BPTA की धारा 36 के तहत निषिद्ध है।
- CNI के पंजीकरण में विसंगतियाँ: CNI का पंजीकरण 1971 में होना चाहिए था, लेकिन यह 1980 में किया गया, जो BPTA की धारा 18 के खिलाफ था।
- एफडीसीबी के प्रबंधन का संकट: अदालत ने यह भी सवाल उठाया कि एफडीसीबी के विलय के बाद उसकी संपत्तियों का प्रबंधन किसने किया, क्योंकि एफडीसीबी के नाम पर किसी ठोस रिकॉर्ड का अभाव था।
अदालत का निष्कर्ष:
अदालत ने इस मुद्दे पर विस्तृत चर्चा की और कहा कि CNI और एफडीसीबी के विलय की प्रक्रिया को कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है, और इसके परिणामस्वरूप एफडीसीबी की संपत्तियों के प्रबंधन और नियंत्रण का सवाल अब भी अनसुलझा है।
क्या आगे होगा?
इस फैसले के बाद, CNI को अपनी कानूनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी, और यह संभव है कि अन्य धार्मिक संस्थाएं भी इस निर्णय को लेकर अपने अधिकारों का पुनः परीक्षण करें। अदालत के आदेश के बाद, एफडीसीबी की संपत्तियों और प्रबंधन के बारे में गंभीर सवाल उठे हैं, जिन्हें लेकर कानूनी प्रक्रिया जारी रहेगी।
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