
वन्दे भारत लाइव टीवी न्यूज़ डिस्ट्रिक्ट हेड चित्रसेन घृतलहरे, 12 जुलाई 2025//पेंड्रावन // प्रदेश के सरकारी स्कूलों में नया सत्र प्रारंभ हुए एक महीना बीतने को है, लेकिन अब तक न तो छात्रों को पुस्तकें मिली हैं, न ही निर्धारित ड्रेस। परिणामस्वरूप पढ़ाई पूरी तरह चरमरा गई है। बच्चे बिना किताब और ड्रेस के स्कूल आ तो रहे हैं, लेकिन हाथ खाली और मन व्यथित है। शिक्षक भी इस असहाय स्थिति में खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। यह हाल तब है जब शासन शिक्षा के स्तर को सुधारने के दावे हर मंच से करता है। मगर ज़मीनी हकीकत यह है कि शिक्षा विभाग की “नवाचारों” की लोरी तो सुनाई देती है, पर स्कूलों में किताबों की खामोशी और बच्चों की सूनी आँखें कुछ और ही कहानी कह रही हैं।
बिना किताब के पाठशाला, बिना ड्रेस के शाला अनुशासन – शासन को नहीं कोई चिंता!
शिक्षकों का कहना है कि जब बच्चों के हाथों में किताबें ही नहीं होंगी तो वे क्या सीखेंगे? पढ़ाई का पहला महीना लगभग पूरी तरह बर्बाद हो गया है। बच्चों को व्यर्थ बैठाए रखना पड़ा है, क्योंकि शिक्षकों के पास भी पाठ्यपुस्तकों की प्रतियाँ नहीं हैं। शासन स्तर पर योजनाएं तो बहुत बनती हैं, घोषणाएँ भी जोशीली होती हैं, लेकिन अमल के नाम पर नीयत और व्यवस्था दोनों ही नदारद हैं। ड्रेस वितरण की भी यही दशा है – स्कूलों में बच्चे सामान्य कपड़ों में बैठकर ‘सरकारी होने’ का कलंक झेलते नज़र आ रहे हैं।
सरकारी स्कूल: जहाँ शिक्षक हैं योग्य, पर व्यवस्था है निर्लज्ज
यह तथ्य किसी से छुपा नहीं कि सरकारी स्कूलों में कार्यरत शिक्षक कठिन प्रतियोगी परीक्षाएं पास कर चयनित होते हैं। उनके पास अनुभव, योग्यता और सेवा की भावना है। लेकिन उन्हें जिस प्रकार की व्यवस्था में काम करना पड़ रहा है, वह एक तरह से उनकी क्षमताओं का अपमान है। वहीं दूसरी ओर निजी स्कूलों में 12वीं पास युवक-युवतियां बिना किसी शिक्षक पात्रता के पढ़ा रहे हैं, और वहाँ बच्चों की भीड़ है। क्यों? क्योंकि निजी स्कूल सजावट दिखा रहे हैं और सरकारी स्कूल संसाधनों के लिए शासन के मुंह ताक रहे हैं।
शासन शिक्षा को ‘सेवा’ नहीं, ‘सेल्फी प्रोजेक्ट’ समझ बैठा है
प्राइवेट स्कूलों की बढ़ती संख्या और शिक्षा के व्यावसायीकरण ने इस बात को साफ कर दिया है कि शासन ने शिक्षा को ‘सेवा’ नहीं, एक ‘बिज़नेस मॉडल’ मान लिया है। सरकारी स्कूलों के नाम पर घोषणाएँ कर फोटो खिंचवाना ही शासन की प्राथमिकता बन गई है। किताबें कब तक पहुंचीं? ड्रेस कब दी गई? शिक्षक को पढ़ाने का समय मिला या नहीं? ये सवाल शासन की डायरी में कहीं दर्ज ही नहीं हैं।
प्रदेश सरकार द्वारा शिक्षा के “युक्तियुक्तिकरण” नामक प्रयोग के तहत हजारों सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए, यह कहकर कि छात्रों की संख्या कम है। लेकिन सवाल यह है कि क्या संख्या कम होने के पीछे शासन की अपनी नीतियाँ ज़िम्मेदार नहीं हैं? जब बच्चों को समय पर किताब और यूनिफॉर्म तक न मिले, स्कूल में शिक्षक न हो या उन्हें दूसरे सरकारी कार्यों में झोंक दिया जाए, तब कौन सा अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजना चाहेगा? शासन की असंवेदनशीलता का खामियाजा उन मासूम बच्चों को भुगतना पड़ रहा है जो अपना भविष्य संवारने के लिए स्कूल की चौखट पर आए हैं। लेकिन उन्हें न किताब मिल रही, न वर्दी, और न ही सीखने का स्वस्थ वातावरण। अगर यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब सरकारी स्कूल ‘नाम मात्र’ के रह जाएंगे और शिक्षा पूरी तरह एक महंगी वस्तु बन जाएगी – जिसे केवल अमीर ही खरीद सकेंगे। शासन को यह समझना होगा कि शिक्षा केवल नीतियों और नारों से नहीं चलती, उसे समय पर किताब और ड्रेस जैसी छोटी चीज़ों से भी पोषण मिलता है। और जब यही पोषण न मिले, तो शिक्षा की जड़ें सूख जाती हैं – जैसे आज होते देख रहा है पूरा प्रदेश।