
तेरह अप्रैल, वह काली घड़ी
शिवानी जैन एडवोकेट
तेरह अप्रैल की धूप थी पीली,
बाग में बैठी थी जनता भोली।
राजनीति की गर्माहट से अनजान,
अपने ही देश में बने मेहमान।
जनरल का क्रूर फरमान आया,
शांतिपूर्ण सभा पर कहर ढाया।
बंद किए सारे निकलने के द्वार,
बरसीं गोलियां, हुई लहू की धार।
माँ की गोद सूनी, भाई से बिछड़ा,
हर तरफ मौत का मंजर बिगड़ा।
सिसकते बच्चे, रोती नारियां,
अत्याचार की वो चीखें करुण थीं भारी।
मिट्टी भी लाल हुई शहीदों के खून से,
आज़ादी की ज्वाला जगी उस जुनून से।
भूलेंगे नहीं वो बलिदान कभी हम,
अन्याय के आगे न झुकेंगे कदम।
जलियांवाला बाग, एक दर्द भरा इतिहास,
मानवता के माथे पर कलंक का निशान।
पर शहीदों की कुर्बानी रंग लाई,
आज़ादी की सुबह फिर से आई।